Sunday, December 6, 2009

पत्नी के प्यार से अजिज पति ने मांगा तलाक



सुनने में भले ही विचित्र लगे, लेकिन है सत्य कि पति ने पत्नी के बेइंतहा प्यार से परेशान होकर तलाक मांगा है। उसने कड़कड़डूमा कोर्ट में तलाक की याचिका दायर की है। अधिवक्ता नितिन कुमार ने बताया कि शाहदरा के युवक रमन (काल्पनिक नाम) की शादी नांगलोई निवासी सुमन (काल्पनिक नाम) से 7 नवंबर, 2007 को हुई थी। उसका कहना है कि पत्‍‌नी विवाह से पूर्व ही किसी दिमागी बीमारी से पीडि़त थी। यह बात ससुराल वालों ने उससे छिपाई। विवाह के एक साल तक तो सब ठीक रहा, मगर जनवरी, 2009 से उसके वैवाहिक जीवन में भूचाल आ गया। पत्‍‌नी सुमन ने उसकी आवश्यकता से अधिक चिंता करने लगी। शुरुआत में उसने इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया। सुमन की दिमागी हालत खराब होती चली गई। अगर, वह घर पर होता है तो उसकी पत्‍‌नी एक पल भी उसे आंखों से ओझल नहीं होने देती। कोई उससे बातचीत करता है तो सुमन उसे यह कहकर घर से भगा देती है कि छुट्टी के दिन पति का दिन केवल उसका है। घर से निकलने के बाद उसे दर्जनों बार फोन करके उसे पूछती है कि वह ठीक तो है। इसके चलते घर के फोन का बिल 10 हजार के करीब आने लगा है। वह फोन स्वीच आफ कर लेता है तो पत्‍‌नी हालचाल जानने के लिए उसके आफिस पहंुच जाती है। ऐसा उसके साथ कई बार हो चुका है। दोस्तों एवं रिश्तेदारों में वह हंसी का पात्र बनता जा रहा है। वह न तो घर में चैन से रह सकता है और न ही बाहर। उसने पत्‍‌नी को इहबास अस्पताल में मनोचिकित्सक को दिखाया और वहां पर उसका उपचार भी चल रहा है। वह गंभीर मानसिक रोग से पीडि़त है, जोकि किसी को भी बाल अवस्था में में हो सकता है और सही इलाज न होने पर जीवन भर उसका असर रहता है। पत्‍‌नी का आवश्यकता से अधिक प्यार उसकी बर्दाश्त के बाहर है। लिहाजा उसे तलाक दिलाया जाए...

पांच साल की बच्ची के खिलाफ वारंट



अदालत में पेश न होने पर लोगों के खिलाफ वारंट जारी करना अदालत की सामान्य प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया आमतौर पर अदालती आदेशों को न मानने वालों के खिलाफ अमल में लाई जाती है। मगर, कड़कड़डूमा कोर्ट ने गवाही के लिए पेश न होने पर पांच साल की बच्ची के खिलाफ भी जमानती वारंट जारी कर दिया है। किसी पांच साल के बच्चे के खिलाफ जमानती वारंट जारी होने का राजधानी में यह पहला मामला है।
यह मामला कड़कड़डूमा कोर्ट स्थित मेट्रोपालिटन मजिस्ट्रेट शिवाली शर्मा की अदालत का है। अदालत ने दुष्कर्म के मामले में पीड़िता पांच साल की बच्ची के खिलाफ पांच हजार रुपये के जमानती वारंट जारी किए हैं और अदालती निर्देश जारी किया गया है कि वह 10 दिसंबर तक अदालत के समक्ष पेश हो। अदालत द्वारा जारी किए गए इस सम्मन ने न्यू उस्मानपुर थाना के कर्मचारियों को परेशानी में डाल दिया है।

खिड़की ने किया जीना दुश्वार, कोर्ट से गुहार

जज साहब! पड़ोसी की खिड़की मेरे लिए जी का जंजाल बन गई है। खिड़की को न तो पुलिस बंद करा सकी और न ही नगर निगम। ऐसे में मुझे अदालत की शरण लेनी पड़ी। जाफराबाद के युवक ने कड़कड़डूमा कोर्ट में खिड़की बंद कराने के लिए याचिका दायर की है।
जाफराबाद इलाके में रहने वाले इमरान (काल्पनिक नाम) ने पड़ोसी शाहिद (काल्पनिक नाम) के मकान की खिड़की बंद कराने के लिए सिविल जज की अदालत में याचिका दायर की है। याचिका में इमरान का कहना है कि वह जाफराबाद स्थित मकान में प्रथम तल पर किराये पर रहता है। उसके कमरे के आगे बालकनी है। उसकी शादी को तीन माह हुए हैं। सामने बने मकान में रहने वाले युवक शाहिद ने कमरे की दीवार तोड़ कर उनकी तरफ खिड़की निकाल ली। वहां से शाहिद उसकी पत्नी को गलत इशारे करता है। उसने कई बार शाहिद को धमकाया, लेकिन वह हरकतों से बाज नहीं आया। जब भी वह बालकनी में सिगरेट पीने के लिए खड़ा होता है तो शाहिद उस पर पानी गिरा देता है। उसने कई बार शाहिद के खिलाफ पुलिस को शिकायत की, लेकिन उसने कोई कार्रवाई नहीं की। पुलिस ने कहा कि शाहिद ने खिड़की बिना नक्शा पास कराए मकान में अवैध रूप से बनाई है। वह इसकी नगर निगम को शिकायत कर उसकी खिड़की बंद करा सकता है। उसने मामले की शिकायत निगम अधिकारियों को भी की, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। निगम अधिकारियों के चक्कर काटने पर भी उसे लाभ न पहुंचा तो उसे मजबूरन पड़ोसी की खिड़की बंद कराने के लिए अदालत की शरण लेनी पड़ी।

Tuesday, December 1, 2009

काँच की बरनी और दो कप चाय

जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी - जल्दी करने की इच्छा होती है , सब
कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है , और हमें लगने लगता है कि दिन के
चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं , उस समय ये बोध कथा , " काँच की बरनी और दो
कप चाय " हमें याद आती है ।
दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा
कि वे आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं ...
उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बडी़ बरनी ( जार ) टेबल पर रखा और
उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें
एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची ... उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या
बरनी पूरी भर गई ? हाँ ... आवाज आई ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे -
छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये h धीरे - धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी
सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी , समा गये , फ़िर से प्रोफ़ेसर साहब ने
पूछा , क्या अब बरनी भर गई है , छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ ... कहा अब
प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले - हौले उस बरनी में रेत डालना
शुरु किया , वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई , अब छात्र अपनी
नादानी पर हँसे ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्यों अब तो यह बरनी
पूरी भर गई ना ? हाँ .. अब तो पूरी भर गई है .. सभी ने एक स्वर में कहा
.. सर ने टेबल के नीचे से चाय के दो कप निकालकर उसमें की चाय जार में
डाली , चाय भी रेत के बीच स्थित थोडी़ सी जगह में सोख ली गई ...
प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया –

इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो ....

टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान , परिवार , बच्चे
, मित्र , स्वास्थ्य और शौक हैं ,

छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी , कार , बडा़ मकान आदि हैं , और

रेत का मतलब और भी छोटी - छोटी बेकार सी बातें , मनमुटाव , झगडे़ है ..

अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस
की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती , या कंकर भर दिये होते तो
गेंदें नहीं भर पाते , रेत जरूर आ सकती थी ...
ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है ... यदि तुम छोटी - छोटी बातों के पीछे
पडे़ रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों
के लिये अधिक समय नहीं रहेगा ... मन के सुख के लिये क्या जरूरी है ये
तुम्हें तय करना है । अपने बच्चों के साथ खेलो , बगीचे में पानी डालो ,
सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ , घर के बेकार सामान को बाहर निकाल
फ़ेंको , मेडिकल चेक - अप करवाओ ... टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले
करो , वही महत्वपूर्ण है ... पहले तय करो कि क्या जरूरी है ... बाकी सब
तो रेत है ..
छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे .. अचानक एक ने पूछा , सर लेकिन आपने यह
नहीं बताया कि " चाय के दो कप " क्या हैं ? प्रोफ़ेसर मुस्कुराये , बोले
.. मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया ...
इसका उत्तर यह है कि , जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे ,
लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये ।

Tuesday, October 20, 2009

रिवाज

दरवाजे पर दो कच्चे बांस, कफन और धूप-दीप पडा देखकर पडोसी समझ गये यहां कोई मरा है। लेकिन अंदर से कोई रोने-गाने की आवाज नहीं आ रही थी। पडोसियों को आश्चर्य हुआ और जिज्ञासा भी कि मौत के माहौल में भी लोग शांत रह लेते हैं।

एक घंटा के अंदर पडोसी बिना बुलाए मंहगाई की तरह दरवाजे पर जमा होने लगे। उनमें से कुछ लोग बांस काटकर अरथी बनाने में लग गये तो कुछ लोग संभावित मुर्दा के बारे में अनुमान लगाने में। समय गुजरता रहा। दरवाजे पर जमा भीड के शोरगुल ने गृहस्वामी को बाहर निकाल ही दिया।

गृहस्वामी बीस-बाईस साल का युवक था, जिसको देखकर लोगों ने सहज ही अनुमान लगा लिया कि इसको अभी कर्मकांड का अनुभव नहीं है। इसीलिए अरथी उठाने में विलम्ब हो रहा है। भीड ने पूछा- भगवान ने किसको अपने पास बुलाया?

लडका-मेरे बाप को घाट ले जाना है। इतना कह कर लडका अंदर चला गया। भीड में फिर चर्चा होने लगी कि- लडका बहुत उजड्ड है। उसके चेहरे पर दु:ख का कोई लक्षण तक नहीं है। पालतू कुत्ते के मरने पर भी लोग दु:खी होते हैं, इसका तो बाप ही मरा है। लेकिन लडके की बोली तो सुनो।

बाहर पडोसी और अरथी मुर्दा के बाहर आने की प्रतीक्षा करते रहे और समय गुजरता रहा। ऊबकर भीड ने लडके को बाहर बुलाकर पूछा- घाट जाने में अभी और कितनी देर है?

लडका बोला- अभी मैं निर्णय कर रहा हूं कि इसका दाह संस्कार का आरंभ घर से किया जाय कि घाट से। भीड में फिर शोर उठा- ये क्या पागलों वाली बात है? दाह संस्कार तो घाट पर ही होता है।

लडका- शादी-विवाह और कर्म-कांड तो सभी के यहां होता है। लेकिन सभी के यहां के रिवाज एक सा तो नहीं होता है। खैर जब पंचों की मर्जी है कि दाह संस्कार का आरंभ घाट पर ही हो तो ऐसा ही होगा, चला जाये घाट की ओर।

भीड फिर बाहर प्रतीक्षा करने लगी। पांच-दस मिनट में लडके ने अपने बाप को लाकर अरथी पर लिटा दिया। भीड जब अरथी सजाने लगी तो मुर्दा बोला- अभी तो मैं जिंदा हूं। भीड में फिर शोर उठा- बाप अभी जिंदा है और लडका उसे मारने पर तुला है। क्या समय आ गया है? बाप को दो रोटी देना भी लडकों को अखरता है।

लडका- बात रोटी की नहीं है। बात रिवाज की है। आदमी के जीवन-मृत्यु का हिसाब तो ऊपर से ही तय होता है। मेरे यहां का रिवाज है कि दाह संस्कार जीते जी ही किया जाता है। जब मैं पांच-छ: साल का बच्चा था, तो इस आदमी ने मेरी मां का दाह संस्कार जीते जी ही सम्पन्न किया था। भले ही इसे उसके लिए उम्र कैद की सजा हो गयी। समाज या कानून भले ही इसे हत्यारा, पत्नीहन्ता चाहे जो भी कहे, है तो मेरा बाप। मुझे तो अपनी मां की आत्मा की शांति के लिये खानदानी रिवाज निभाना ही होगा।

Thursday, October 1, 2009

नया आटो सवा लाख, कबाड़ तीन लाख

कहावत है जिंदा हाथी लाख और मरा सवा लाख का। दिल्ली की सड़कों से बाहर हुए हजारों आटोरिक्शा भी यही कहानी दोहरा रहे हैं। जी हां, नए आटोरिक्शा की शोरूम कीमत लगभग 1.25 लाख रुपये, कबाड़ की कीमत है ढाई से तीन लाख रुपये, जबकि मार्केट में आटो बिक रहा है चार से साढ़े चार लाख रुपये में। यानी राजधानी दिल्ली में आटोरिक्शा के परमिट की खुलेआम ब्लैक बिक्री।

करोड़ों के इस खेल में खरीददार होते हैं यूपी-बिहार के लोग। खेत-खलिहान बेचकर लगा देते हैं परमिट की बोली। यह तब से है, जब से आटो रिक्शा के नये परमिट पर रोक लगा है। साथ ही 55 हजार आटोरिक्शा से अधिक न होने पर पाबंदी है। पाबंदी लगने से पहले दिल्ली में 83000 आटो हुआ करते थे। सरकार भी जानती है, लेकिन खामोश है। अब हो सकता है, परमिट पर लगी पाबंदी हट जाए। क्योंकि, सुप्रीम कोर्ट के निर्देश में बनी भूरे लाल कमेटी लोगों से नये परमिट जारी करने के संबंध में राय ले रही है। बात बन गई तो हजारों नये लोगों को अवसर तो मिलेंगे ही साथ ही पुराने परमिट की कीमतें भी कम हो जाएंगी।

होता यूं है कि आटो रिक्शा के 'सी', 'डी' एवं 'ई' सीरीज वाली गाड़ियां जो कबाड़ हो चुकी हैं, उन्हें खरीदा जाता है। इस कबाड़ की कीमत तो वैसे परिवहन विभाग के मुताबिक लगभग 5800 रुपये होता है। लेकिन, गाड़ी के साथ परमिट ढाई से तीन लाख रुपये में बिक जाता है। इसके बाद खरीददार परमिट अपने नाम करवा कर गाड़ी स्क्रैप करवा देते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में दो से तीन महीने लगते हैं। परमिट और स्क्रैपिंग ओके होने के बाद खरीददार नया आटो 1.35 लाख रुपये में खरीद लेता है। इंश्योरेंस, नया मीटर, फिटनेस, प्रदूषण आदि कार्रवाई के बाद सड़क पर आते आते एक आटो की कीमत चार से साढे चार लाख रुपये तक हो जाती है। इस पूरे 'खेल' में शामिल होते हैं परिवहन विभाग के कर्मचारी, फाइनेंसर, ब्रोकर और आटो क्षेत्र की कुछ तथाकथित यूनियनें।

इस बावत टैक्सी आटो रिक्शा ड्राइवर संघर्ष समिति के अध्यक्ष सोमनाथ, फेडरेशन ऑफ ऑल दिल्ली आटो टैक्सी ट्रांसपोर्टर्स के अध्यक्ष किशन वर्मा, भाजपा ट्रांसपोर्ट प्रकोष्ठ के संयोजक आनंद त्रिवेदी, राजिंदर सोनी आदि का कहना है कि सारा खेल परमिट का है। अगर नए परमिट पर लगी रोक हट जाए तो ब्लैक मार्केट एक दिन में खत्म हो जाए।


53 प्रतिशत लड़कियां नहीं पहुंच पाती स्कूल

भले ही महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार देने के सरकार दावे करता रहे, लेकिन हकीकत आज भी इन दावों को कोसो दूर है। देश में महिलाओं को हालात में सुधार की गति दावों के बहुत कम है। यही कारण है कि कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुप्रथाएं आज भी समाज में अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं। प्रतिदिन सात हजार लड़कियों को पेट में ही मौत की नींद सुला दी जाती है। वहीं संविधान द्वारा चौदह साल तक के बच्चों को दिए जाने वाले शिक्षा के अधिकार से भी यह बच्चियां वंचित हो रही है। इसके चलते नौ साल तक की उम्र तक पहुंचने के बाद भी 53 प्रतिशत लड़कियां स्कूल नहीं जा पा रही है।

चाइल्ड राइट एंड यू नामक गैर सरकारी संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि ग्रामीण इलाकों में 15 प्रतिशत लड़कियों की शादी 13 साल की उम्र में ही कर दी जाती है। इनमें से लगभग 52 प्रतिशत लड़कियां 15 से 19 साल की उम्र में गर्भवती हो जाती है। रिपोर्ट में बताया गया है कि 73 प्रतिशत लड़कियों में खून की कमी है। वहीं अगर उनको डायरिया हो जाता है तो 28 फीसदी को कोई दवा नहीं दिलाई जाए। जयपुर में 51.50 प्रतिशत व ग्रामीण इलाकों में रहने वाले 67 प्रतिशत पिताओं का कहना है कि अगर आर्थिक तंगी आती है वह अपनी बच्ची का स्कूल जाना बंद करवा देंगे। एक अनुमान के अनुसार 24 प्रतिशत लड़कियों को शिक्षा से वंचित रहना पड़ रहा है। जो पढ़ना शुरू कर भी देती है उनमें से 60 प्रतिशत सेकेंड्री स्कूल तक भी नहीं पहुंच पाती है।

24 सितंबर को मनाए जाने वाले गर्ल चाइल्ड डे पर सीआरवाई ने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह महिला व बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ सहित अन्य को अपनी मांगों का एक चार्टर सौंपा है। सीआरवाई के जनरल मैनेजर कुमार निलेंदू ने बताया कि जब तक सरकार व पब्लिक बड़े स्तर पर लड़कियों के एक समान विकास पर ध्यान नहीं देंगे तब तक इन परिस्थितियों को बदल पाना संभव नहीं है।





Monday, September 21, 2009

फर्क

सड़क पर दो कुत्ते आपस में लड़ रहे थे। पास के दुकानदार को नागवार गुजरा। उसने आवाज देकर कुत्तों को भगाना चाहा, पर कुत्ते लड़ते-भौकते ही रहे। तब दुकानदार ने सड़क से एक बड़ा-सा पत्थर उठाया और चला दिया उन कुत्तों पर। इसके पहले कि उन्हे पत्थर लगता वे दोनों रफूचक्कर हो गये। और इत्तफाकन वह पत्थर पड़ोसी की दुकान में जा गिरा और उसका शोकेस का शीशा टूट गया। वह नाराज होकर बुरा भला कहने लगा। पत्थर चलाने वाले दुकानदार ने समझाने की कोशिश की कि उसने जानबूझकर दुकान पर पत्थर नहीं फेंका था। परंतु दूसरा दुकानदार मानने को तैयार ही नहीं था। वह दुकान में हुए नुकसान की भरपाई की मांग कर रहा था। बात यों बढ़ी कि दोनों गाली-गलौज से मारपीट पर उतर आए और फिर ऐसे भिड़े कि एक का सर फट गया। मामला पुलिस तक जा पहुंचा। पुलिस मामला दर्ज कर दोनों को वैन में बिठाकर थाने ले जा रही थी कि रास्ते में लाल सिगनल पर गाड़ी रुकी। पत्थर चलाने वाले ने बाहर झांका देखा, लड़ने वाले वही दोनों कुत्ते एक जगह बैठे उनकी तरफ कातर दृष्टि से देख रहे थे। पत्थर चलाने वाले शख्स को लगा मानो वे दोनों हम पर हंस रहे हों तथा एक दूसरे से कह रहे हों, ''यार, ये तो सचमुच के लड़ गये।''

दूसरे ने कहा, ''हां यार, हमें तो लड़ने की आदत है और हमारी कहावत भी जग जाहिर है परन्तु ये तो हम से भी दो कदम आगे है।''

hansne k kuch bahane


No smoking
insaano ne chod di ab hum shuru kar dete hain, kyun bhai log bolo dum maro dum
Pig on cycle
bhago nahi to log muje swine flu ka karan keh kar maar dalenge

Modification of indian airlines
kuch is tarah udne ka mazaa hi kuch or hai

Funny Monkeys
ise kehte hain bander-baat or loot-paat

About to fall
ab china walon se isse jyada ummid bhi kya ki ja sakti hai


Wednesday, August 19, 2009

विवाह बंधन

माँ दारू देवी की असीम अनुकंपा से पूरे नशे मे टुन्न होकर हुक्के और माल के सनिध्य मैं हमे आज हर्षित होने का अवसर मिला है क्योंकि हमारी बिगड़ी औलाद ..........
चिरंजीव दुली चंद डांगी [NFT]
कूपत्र श्री MARLBORO
तथा
सौ. बीडीकुमारी [DETAINED]
कुपुत्र्ी श्री GOLD FLAKE ...
विवाह बंधन मे बँधने जा रहे है . आप सभी से अनुरोध है की इस पवन अवसर पर पधारे और भरपूर उत्पात मचाकर अपनी उपस्थिति को सार्थक बनाएँ बारात ब्यावरा की "देसी दारू की भट्टी" से निकलकर निकटवर्ती "अँग्रेज़ी शराब की दुकान" की ओर रात 1 बजे के बाद प्रस्थान करेगी ........

चुन्नु-मुन्नू :-- मेरे D.C. भैया की शादी में ज़लूल-ज़लूल आना...........

स्वागतोत्सुक
WILLS, ULTRA MILD ROYAL STAG, GREEN LABLE,
दर्शनाभिलाशी
ROYAL STAG, GREEN LABLE
विनीत
भांग ,कच्ची ,माल ,थिनर

Monday, July 27, 2009

यह कैसी पूजा?

वह किसी कार्यवश अपने मित्र रमन के घर गया था। घर पर रमन मौजूद नहीं था। शायद रमन और उसकी पत्नी किसी कारण बाहर गये हों, यह सोचकर वह रमन की बीमार वृद्ध मां की ओर चला गया जो आंदर खाट पर आंखें मूंदे लेटी हुई थीं।

आहट होने पर वह बोलीं, 'आ गये रमन बेटा।' तो उसने कहा कि, 'मैं रमन नहीं, उसका मित्र विजय हूं'। 'अच्छा हुआ विजय बेटा तुम आ गये।

प्यास के कारण मेरा गला सूखा जा रहा है। जल्दी से एक गिलास पानी लाकर दे दो।' उसने उन्हे पानी दिया। पानी पीने के बाद जब उन्हे कुछ राहत महसूस हुई तब उसने रमन और उसकी पत्नी के बारे में पूछा। इस पर उन्होंने कहा कि वे दोनों पिछले दो घंटे से भी अधिक समय से मंदिर में पूजा-अर्चना करने गये है और अब तक नहीं लौटे है।

उनका इंतजार करते-करते प्यास के कारण गला सूख रहा था और तबियत भी बिगड़ने लगी थी। यह सुनकर विजय को धक्का लगा कि आखिर यह कैसी पूजा है जिसके कारण मां दवा-पानी के अभाव में घर में खाट पर पड़ी दम तोड़ रही है? जबकि वे मंदिर में घंटों से लाइन में लगे, अपनी बारी की प्रतीक्षा करते, भगवान से अपने सफल, सुखद जीवन की याचना कर रहे होंगे। उसका मूड उखड़ गया और वह जिस काम से रमन के घर गया था उसे बिल्कुल भूल ही गया।


ससुराल की इज्जात

विदाई के समय मां ने दीक्षा को समझाया- ''बेटी अपने ससुराल वालों का ख्याल रखना। आज से वही तेरा घर है। हर सुख-दु:ख में उनका साथ देना। उनकी इज्जात ही तेरी इज्जात है।'' मां के बताए संस्कारों और अपने मधुर स्वभाव से दीक्षा ने ससुराल में सभी का दिल जीत लिया।

हंसते-गाते कब एक वर्ष बीत गया पता ही न चला। लेकिन अब उसके ससुराल वाले घोर चिंता में थे। उसकी ननद की शादी होनी थी। रुपयों का इंतजाम नहीं हो पा रहा था। दीक्षा भी बहुत परेशान थी।

इसी बीच वह अपने मायके आई और वहां रखे हुए अपने गहने ले जाने लगी तो उसकी मां ने कहा- ''बेटी दीक्षा, ननद की शादी के लिए तू अपने गहने ले जा रही है यह तू क्या कर रही है? अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी..।''

मां की बात बीच में ही रोकते हुए वह बोली- ''मां यह आप क्या कह रही हो! आप ही ने तो मुझे बताया है कि ससुराल की इज्जात ही मेरी इज्जात है। मां, यह गहने मेरी ननद से बढ़कर नहीं है। अपनी ननद की शादी के लिए मैं हर संभव प्रयत्न करूंगी।'' और वह गहने लेकर ससुराल आ गई।


Tuesday, July 14, 2009

मोबाइल शिष्टाचार सिखाएगी सरकार

अस्पताल में या अन्य सार्वजनिक स्थानों पर अचानक से मोबाइल की घंटी बजने पर सभी को काफी परेशानी होती है, लेकिन अब ऐसा नहीं होगा। दरअसल सरकार ने लोगों को मोबाइल पर बात करने संबंधी शिष्टाचार सिखाने का निर्णय लिया है।
इस क्रम में दूरसंचार विभाग ने मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनियों को निर्देश दिया गया है कि वे सिम या मोबाइल सेट खरीदने वाले उपभोक्ताओं को मोबाइल फोन के उपयोग के बाबत जरूरी शिष्टाचार बताने के लिए लिखित सामग्री उलब्ध कराने की व्यवस्था सुनिश्चित करे। लोगों की सुविधा के लिए यह सामग्री अंग्रेजी के साथ ही क्षेत्रीय भाषाओं में भी उपलब्ध कराने के निर्देश दिए गए है।
दूरसंचार विभाग का कहना है, ग्राहकों को मोबाइल पर बात करने के तौर तरीके सिखाना भी मोबाइल कंपनियों की जिम्मेदारी है।
गौरतलब है कि अनेक विकसित देशों में मोबाइल फोन के इस्तेमाल को लेकर नियम कायदे पहले से ही लागू हैं। अमेरिका, कनाडा और यूरोप के स्कूलों में कक्षा में मोबाइल फोन लाने की इजाजत नहीं है।

* अस्पताल, एयरक्राफ्ट, सिनेमाघर, पूजाघर जैसे सार्वजनिक स्थानों पर मोबाइल फोन को स्विच ऑफ या वाइब्रेशन पर रखें।
* ड्राइविंग करते समय मोबाइल पर बात न करे।
* किसी की जानकारी के बिना मोबाइल से उसकी फोटो न खीचें।
* मोबाइल की रिंगटोन बहुत तेज नहीं होनी चाहिए।

Monday, July 13, 2009

खुशी

सुखबीर को अपने इकलौते बेटे अमन से बड़ा लगाव था। यों तो स्कूल की वैन-सर्विस थी, लेकिन सुबह उसे स्कूल छोड़ने व दोपहर छुट्टी के समय उसे घर लाने के लिए, वह स्वयं स्कूल जाता था। वह इसी में खुश और संतुष्ट था। आज भी तपती दोपहरी में वह स्कूटर पर उसे लेने गया। लू चल रही थी। अमन आया, तो मुरझाया-सा लग रहा था। सुखबीर ने रास्ते में स्कूटर रोककर उसे ठण्डी फ्रूटी पिलाई।
अमन फ्रूटी के पैक में स्ट्रा लगाए मजे से आम का रस ले रहा था। जल्द ही खुशी से उसका चेहरा खिल उठा।
देखकर सुखवीर भी खुश हुआ। पास से सरकारी स्कूल से लौटे दो बच्चे पैदल आ रहे थे। उनके गाल रूखे व होंठ सूखे हुए थे। अमन को दुकान की छाया में फ्रूटी पीते देखकर वे जरा ठिठके।
हसरत भरी नजरों से उसे देखते रहे। फिर सूखे होंठों पर जबान फेरते हुए आगे बढ़ गए। एक ने दूसरे से कहा- 'हमारी ऐसी किस्मत कहां!' दूसरे ने हामी भरते हुए कहा- 'ठीक कहते हो, भाई!' चलते-चलते उन्हे फ्रूटी का इस्तेमाल किया हुआ खाली पैक सड़क किनारे पड़ा दिखाई दिया। एक ने कसकर पैर से उसे ठोकर मारी। पैक हवा में लहराता हुआ एक नाली में जा गिरा। दोनों बच्चों ने जोर से ठहाका लगाया और खुशी-खुशी घर को चल दिए।

थकान

थकान कई तरह की होती है। कोई चलते-चलते थक जाता है। कोई पढ़ते-लिखते थक जाता है। कोई बार-बार असफल होने पर, बार-बार लक्ष्य न प्राप्त होने पर थकान महसूस करता है। लेकिन उसकी थकान देख मैं आश्चर्य में पड़ गया था। उस बूढ़ी मां का जवान बेटा उसे अपनी गोद में उठाकर मतदान स्थल तक लाया था। मतदान स्थल उसके घर से लगभग 3 कि.मी. दूर था। उसने अपनी मां की मतदाता संख्या पर्ची आगे बढ़ाई। मतदाता अधिकारी को उसकी मां का नाम, नम्बर मतदाता सूची में तो मिला लेकिन वह मृतक सूची में था। मृतक घोषित होने के कारण वह अपनी मां का मत नहीं डलवा पाया। तब जैसी थकान उस युवक के चेहरे पर थी वैसी थकान मैंने पहले कभी नहीं देखी थी। ये थकान वैसी ही थी जैसे कोई यात्री ट्रेन पकड़ने के लिए दूर से दौड़ रहा हो फिर भी ट्रेन न पकड़ पाए।
उधर बूढ़ी मां अपने बेटे का मुंह ताके जा रही थी। बोली, ''बेटा क्या हुआ? क्या मेरा वोट नहीं है?'' ''हां मां तुम्हारा वोट नहीं है किसी ने कटवा दिया है आपको मरा हुआ घोषित करवा कर।''
''तो क्या अब हम वोट नहीं दे सकते?'' ''हां मां, अब आप वोट नहीं डाल सकतीं। चलो घर चलते है।'' और निराश हो बेटा मां को फिर से पीठ पर लादकर चल दिया। बिना मतदान किए मां को लादना उसे कितना भारी पड़ रहा था। उसकी थकान कब तक मिट पायेगी मैं यह सोचता ही रह गया।

Tuesday, June 30, 2009

पेट की आग

आग.. आग.. आग.. का शोर सुनकर मेरी नींद खुल गई।
छत पर पहुँचा तो देखा कि पास-पड़ोस के लोग भी अपनी-अपनी छतों पर चढ़े सामने की झोपड़पट्टी में आग लगने से ऊंची-ऊंची उठती लपटे देख रहे थे। लोग वहां पर इधर-उधर भाग रहे थे। किसी के हाथ में बाल्टी थी तो कोई प्लास्टिक का डिब्बा ही पानी से भर-भरकर आग बुझाने की मशक्कत में जुटा था। इतने में फायर ब्रिगेड की कई गाड़ियां आ पहुंचीं और पानी की तेज बौछार आग की लपटों को शांत करने लगीं। एकाध घंटे बाद लपटों की जगह धुआं उठता दिख रहा था। हम सब सोने चल दिए।
समाचार पत्र में पेज नंबर तीन पर अग्निकांड को विस्तार से छापा गया था। गनीमत थी कि कोई मौत नहीं हुई थी। कुछ लोगों की गृहस्थी जल गई थी। अग्निपीड़ितों की मदद के लिए हाथों में खाने के कुछ पैकेट लेकर हम वहां गए तो देखा दो बच्चे वहां जले पड़े झोपड़े में एक जल गए बोरे में से कुछ भुने आलू छांट रहे थे। मन में एक ही सवाल कौंध रहा था-कौन-सी आग बड़ी थी, कल रात लगी आग या यह पेट की।

Wednesday, June 24, 2009

बाबा जी

गाड़ी लेट थी। मैं प्लेटफार्म पर एक बैंच पर बैठा था। पास में एक दम्पत्ति अपने तीन बच्चों के साथ थे। पिता कुछ लेने के लिए प्लेटफार्म के बाहर गये तो उनका बड़ा बच्चा अपनी मां को परेशान करने लगा। कभी इधर जाता, तो कभी उधर। वह किसी तरह नहीं माना तो मां ने डराने का प्रयास किया, 'लल्ला! भेड़िया आ जायेगा जल्दी से यहां आकर बैठ जा।' उस बच्चे ने भी उतनी ही मासूमियत से उत्तर दिया- 'भेड़िया यहां कहां से आ जायेगा, यहां तो बहुत आदमी है।' और पुन: शैतानी करने में जुट गया। इसके बाद उस बच्चे की मां के दिमाग में एक और युक्ति आई। उसने बेटे से कहा, 'लल्ला! अभी बाबा आएगा और तुम्हे पकड़कर ले जायेगा।' यह युक्ति सफल रही। वह लड़का जहां था, वहीं ठिठककर रह गया। इसके बाद उसका चेहरा देखने लायक था। मेरे साथ ही अन्य लोगों के आश्चर्य की सीमा न रही। भेड़िए से न डरने वाला, बाबा के नाम से ही इतना सहम गया कि चुपचाप अपनी मां के पास आकर दुबक गया।

Monday, June 22, 2009

जी सर

साहब ने आफिस में घुसते ही अपने पी.ए. से कहा- ''कल जो नया बाबू आया है, उसे मेरे पास भेजो।'' ''जी सर।'' थोड़ी देर में नवनियुक्त बाबू डरता-कांपता साहब के कमरे में हाजिर हुआ। ''क्या नाम है?'' ''संदीप।'' ''घर कहां है?''
''प्रतापगढ़''। ''क्यों आज मंगलवार है?'' ''नहीं सर, आज बुधवार है।'' साहब अभी तक फाइल में ही नजरे गड़ाये थे। लेकिन जब एक बाबू ने उनकी बात काटी, तो उनका अहंकार जाग गया। उन्होंने घूरती नजरों से संदीप को देखा। संदीप कांप गया। ''तुम मुझसे ज्यादा जानते हो?'' ''नहीं सर। मैंने आज सुबह अखबार में पढ़ा था।'' ''अखबार भी तुम जैसे नाकारा ही छापते है।'' ''लेकिन सर, मेरी कलाई घड़ी में भी आज बुधवार है।'' ''गेट आउट फ्राम हियर।''
संदीप के बाहर जाते ही साहब ने बड़े बाबू मनोहरलाल को बुलवाया। बड़े बाबू के आते ही उन्होंने पूछा- ''क्यों बड़े बाबू, आज मंगलवार है?'' ''जी सर।'' ''गुड, नाउ यू कैन गो।''

Sunday, May 31, 2009

दो थानों के बीच उलझी जितेंद्र की मौत की कहानी

आधुनिक जांच का दावा करने वाली दिल्ली पुलिस की पोल छावला से अपहृत 14 वर्षीय छात्र की मौत ने खोल कर रख दी है। दो किलोमीटर से भी कम दूरी पर स्थित दो थानों की पुलिस ने क्षेत्र से लापता छात्र के शव की पहचान करने में दो माह से ज्यादा समय लगा दिया। इस मामले ने पुलिस की कार्रवाई पर सवाल खड़ा कर दिया है। घरवालों के मुताबिक आरोपियों के प्रभाव में आकर पुलिस ने मामले को जानबूझ कर दबाने का प्रयास किया है, जबकि सूत्र इसे पुलिस की निष्क्रियता का परिणाम बता रहे हैं।
ज्ञात हो कि श्यामा देवी नजफगढ़ स्थित दुर्गा विहार फेज-एक में रहती हैं। उनकी तीन बेटियां हैं, जबकि जितेंद्र उर्फ बिल्लू (14) इकलौता बेटा था। उनके पति किशन कुमार की ंवर्षो पहले ट्रेन हादसे में मौत हो चुकी है। पति की मौत के बाद से श्यामा देवी एक्सपोर्ट की फैक्टरी में काम कर किसी तरह घर का गुजारा कर रही है। जितेंद्र स्थानीय पब्लिक स्कूल में 8वीं कक्षा में पढ़ता था।
परिजनों का मुताबिक उनके पड़ोस में दिल्ली पुलिस के एक कर्मचारी का मकान बन रहा था। उसकी देखरेख उसके दो संबंधी युवक कर रहे थे। इसी दौरान उन्होंने जितेंद्र से दोस्ती गांठ ली थी। 21 मार्च को उन युवकों ने फोन कर उनकी बेटी से अपशब्द कहना शुरू कर दिया था। फोन करने से माना करने पर उसने धमकी भी दी थी। इसका पता बाद में जितेंद्र को चला था। 22 मार्च की सुबह दस बजे वह इसकी जानकारी करने उन युवकों के पास उसके निर्माणाधीन मकान पर गया था। उसके बाद से ही जितेंद्र का गायब था।
उसका शव उसी दिन नजफगढ़ इलाके के झड़ौदा तालाब से मिला था। मामा मेघ सिंह के मुताबिक स्थानीय लोगों ने इसकी सूचना नजफगढ़ पुलिस को दी थी। साथ ही उन्होंने यह बताया कि मोटरसाइकिल पर आए दो युवक तालाब में उसे डूबोकर वहां से फरार गए थे। आश्चर्य की बात यह कि मामले के जांच अधिकारी ने उसकी पहचान तक कराना उचित नहीं समझा। उसने शव को राव तुलाराम अस्पताल में रखवा दिया तथा बाद में लावारिस घोषित कर 8 अप्रैल को ही उसका दाह संस्कार भी करवा दिया।
इस दौरान छात्र की बरामदगी के लिए परिजन छावला थाने का चक्कर काटते रहे, लेकिन पुलिस ने अपने पास के थाने में मिले शव के संबंध में जानकारी जुटाने की जरूरत नहीं समझी। परिजनों के दबाव के बाद अंत में छावला पुलिस ने 22 मार्च को झाड़ौदा तालाब से मिले किशोर के कपड़े की पहचान जितेंद्र के परिजनों को कराई। कपड़ों के आधार पर परिजनों ने उसकी पहचान की।
इस घटना ने न केवल परिजनों, बल्कि क्षेत्रवासियों को हिला कर रखा दिया। घटना के बाद जहां सीधी तौर पर पुलिस कटघरे में खड़ी दिख रही है, वहीं इसने विभागीय जांच प्रक्रिया की पोल खोलकर रख दी। दरअसल नजफगढ़ व छावला थाना आसपास होने के साथ ही एक ही एसीपी रेंज के अंतर्गत आता है। इसके अंतर्गत आने वाले सभी थानों की जानकारी ऊपर के अधिकारियों तक पहुंचती है। इसके बावजूद छात्र की पहचान होने में इतनी देरी क्यों हुई, यह अबूझ सवाल है।
सूत्रों की मानें तो इस मामले में नजफगढ़ थाना पुलिस कम दोषी नहीं है जिसने झड़ौदा में मिले शव की जानकारी अन्य थानों में नहीं दी। बाद में शव का गुपचुप तरीके से उसका दाह-संस्कार भी करा दिया। स्थिति है कि पोस्टमार्टम के डेढ़ माह से ज्यादा बीत जाने के बावजूद इसकी रिपोर्ट अब तक सामने नहीं आई पाई है जिससे मौत पर रहस्य बरकरार है।
दिल्ली पुलिस के प्रवक्ता राजन भगत का कहना है कि लापरवाही के आरोप में मामले की जांच कर रहे जांच अधिकारी को निलंबित कर दिया है। इसके बाद पुलिस मामले की दोबारा तहकीकात कर रही है। उन्होंने बताया कि अभी पोस्टमार्टम रिपोर्ट नहीं आई है। रिपोर्ट के बाद छात्र की मौत के कारणों का पता चल पाएगा।

Friday, May 22, 2009

अब मोबाइल पर होगी परीक्षा!

कॉरसपोन्डेंस कोर्स करने वाले छात्रों को अब स्टडी सेंटर के चक्कर लगाने से भी छुट्टी मिलेगी। अब वो पूरी पढ़ाई अपनी सहूलियत के मुताबिक कर सकेंगे। यहां तक कि परीक्षा देने के लिए भी उन्हें कहीं नहीं जाना पड़ेगा।
वो अब मोबाइल फोन पर ही परीक्षा दे सकेंगे। मुंबई का SNDT विश्वविद्यालय अपने कॉरसपोन्डेंस के छात्रों के लिए इस सुविधा की शुरुआत करने जा रहा है।
इतना ही नहीं इन परीक्षार्थियों को अब परीक्षा के रिजल्ट का भी इंतजार नहीं करना पड़ेगा और प्रश्नपत्र के आखिरी सवाल का जवाब देते ही परीक्षा परिणाम उनके मेल बाक्स में पहुंच जाएगा। एस एन. डी. टी. विश्वविद्यालय ने टेलीटैक कंपनियों के सहयोग से देश के युवा वर्ग के लिए खासकर ग्रामीण युवाओं के लिए मोबाइल के माध्यम से सभी वर्ग के युवाओं को पढ़ाने का कार्यक्रम बनाया है।
महाराष्ट्र के राज्यपाल एस. एम. कृष्णा बुधवार को विश्वविद्यालय के पाटकर हाल में इस कार्यकाम की शुरुआत करेंगे। विश्वविद्यालय ने इस कार्यक्रम के लिए टाटा टेली सर्विसेज तथा इंडियन PCO टेलिसर्विसेज के साथ समझौता किया है।
सूत्नों का कहना है कि फिलहाल यह कार्यक्रम हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं में उपलब्ध है लेकिन जल्द ही इसे दूसरी भाषाओं में भी तैयार किया जाएगा। ग्रामीण इलाकों के छात्नों को इस कार्यकाम से जोड़ने के लिए भारत संचार निगम की बीएसएनएल की फोन सेवा का उपयोग किया जाएगा।

Wednesday, May 20, 2009

टूट गया रूबीना का आशियाना


ऑस्कर विजेता फ़िल्म 'स्लमडॉग मिलियनेयर' की बाल कलाकार रूबीना अली का घर भी बुधवार को मुंबई में स्थानीय प्रशासन ने अतिक्रमण हटाने के नाम पर तोड़ दिया.
रूबीना अपने परिवार के साथ मुंबई के बांद्रा पूर्व में स्थित ग़रीब नगर इलाक़े में स्थित झोपड़पट्टी में रहती हैं.
उनकी माँ ने आरोप लगाया कि पुलिस ने उनके पति और बेटी के साथ मारपीट भी की.



अवैध मकान
पिछले हफ्ते ही रूबीना के साथी कलाकार अज़हरुद्दीन का घर भी तोड़ दिया गया था.
बुधवार सुबह 11 बजे रेलवे के कुछ अधिकारियों के साथ ही बड़ी संख्या में पुलिस बल ग़रीब नगर की बस्ती में अवैध रूप से बनाए गए कुछ मकानों को गिराने पहुँचा.
इन घरों में एक घर रूबीना अली का भी था. घटना के समय रूबीना और उसके परिवार वाले घर से बाहर थे. उन्हें जैसे ही इस की ख़बर मिली वे आनन-फानन में वहाँ पहुँचे.
रूबीना की माँ मुन्नी कुरैशी ने पुलिस पर मारपीट का आरोप लगाते हुए कहा कि इस घटना में उनके पति को काफ़ी चोट आई है.
उन्होंने बताया, "हम लोग 11 बजे कुछ सामान खरीदने बाहर गए हुए थे लौटने पर पता चला कि हमारे घर को तोड़ने के लिए पुलिस आई है. रूबीना के पिता ने मुझे वहाँ जाने से मना किया लेकिन मैने कहा कि मुझे अपना सामान वहाँ से निकालना है."
उन्होंने बताया कि पुलिस ने मुझे वहाँ से खदेड़ दिया और मेरे पति को बुरी तरह मारापीटा। इसमें उन्हें काफ़ी चोट लगी है.



सामान्य कार्रवाई
रेल प्रशासन पहले भी मुंबई में स्टेशनों के आसपास अवैध रूप से बने घरों को तोड़ता रहा है. पश्चिम रेलवे के जनसंपर्क अधिकारी सी डेविड ने बीबीसी से बातचीत में इसे सामान्य कार्रवाई बताया.
'स्लमडॉग मिलियनेयर' के कलाकार जब ऑस्कर जीतकर मुंबई लौटे थे तो इन बच्चों को महाराष्ट्र सरकार ने सरकारी घर देने का वादा तो किया था लेकिन वह अभी तक पूरा नहीं हो पाया है.
'स्लमडॉग मिलियनेयर' ने पूरी दुनिया में अब तक 326 मिलियन डॉलर यानि क़रीब 16 सौ करोड़ रुपए की कमाई की है.
लोगों का मानना है कि फ़िल्म ने चाहे जितनी भी कमाई की हो लेकिन उसके ये कलाकार आज भी एक छत के मोहताज़ हैं. फ़िल्म की कमाई का इन बच्चों की ज़िंदगी पर नहीं पड़ा है.

53 ट्रेनों का ठहराव, 15 हजार यात्री पर कर्मचारी सिर्फ एक

एक कहावत है कि ऊंट के मुंह में जीरा अर्थात जरूरत ज्यादा की और हाथ आया केवल तिनका। कुछ ऐसा ही हाल है विवेक विहार रेलवे स्टेशन का। कहने को तो विवेक विहार रेलवे स्टेशन को बने हुए 32 वर्ष बीत चुके हैं, मगर जब बात यहां के संसाधनों और सुविधाओं की बात आती है तो वे न के बराबर ही हैं। विवेक विहार रेलवे स्टेशन पर इस समय 53 गाडि़यों का ठहराव है और रोजाना 15 हजार के करीब यात्री इस रेलवे स्टेशन से अपने विभिन्न गंतव्यों पर जाते हैं। इतने लोगों को टिकट व पास की सुविधा मुहैया कराने के लिए रेलवे प्रशासन ने यहां पर सिर्फ एक ही कर्मचारी रख छोड़ा है। यही कर्मचारी रेलवे स्टेशन पर टिकट भी काटता है और यहां से गुजरने वाली ट्रेनों को हरी व लाल झंडी दिखाने का काम भी करता है। ऐसे में लोगों को रोजाना पेश आने वाली परेशानियों का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।
उल्लेखनीय है कि विवेक विहार रेलवे स्टेशन को वर्ष 1976 में रेल यात्रियों की पुरजोर मांग पर बनाया गया था। उस समय लोगों को तनिक भी अनुमान नहीं था कि एक दिन यही रेलवे स्टेशन खामियों के चलते उनकी परेशानियों का कारण भी बन जाएगा। उस समय यहां पर चार कर्मचारियों की तैनाती की गई थी, जोकि धीरे-धीरे घट कर आज मात्र एक कर्मचारी रह गया है। इस समय विवेक विहार रेलवे स्टेशन पर एक ही कर्मचारी है, जो यहां पर प्रतिदिन आने वाले करीब 15 हजार यात्रियों के लिए टिकट काटने व पास बनाने तक के सभी काम करता है। इतना ही नहीं, जब कोई विशेष ट्रेन विवेक विहार रेलवे स्टेशन से गुजरती है तो स्टेशन पर तैनात यह एक मात्र कर्मचारी ही अपने बाकी सभी काम छोड़ कर ट्रेन को सिग्नल के अनुसार हरी या लाल झंडी दिखाकर संदेश प्रसारित करता है।
इससे रोजाना यहां पर टिकट के लिए लोगों की लंबी लाइनें लगती हैं। इतना ही नहीं, ऐसे में लोगों के बीच धक्का-मुक्की व मारपीट आम बात हो गई है। यहां इस समय न तो कोई सफाई कर्मी है और न ही सुरक्षाकर्मी। इससे यहां अराजक तत्वों का बोलबाला रहता है। अपनी सुविधा को लेकर रेलयात्री दर्जनों बार रेल अधिकारियों को सूचित कर चुके हैं, मगर अधिकारियों के कानों पर कभी जूं तक न रेंगी।
इस बारे में दैनिक यात्री संघ के संस्थापक एमबी दुबे बिजनौरी ने बताया कि विवेक विहार रेलवे स्टेशन को बने 32 वर्ष बीत चुके हैं, मगर हर साल यहां पर सुविधाएं बढ़ाने की बजाए रेलवे प्रशासन घटाता ही चला जा रहा है। उन्होंने कहा कि दैनिक यात्री संघ पिछले पांच साल से विवेक विहार रेलवे स्टेशन पर रेल कर्मचारियों की संख्या और सुविधाएं बढ़ाने की मांग कर रहा है, मगर कोई ध्यान रेल प्रशासन ने नहीं दिया।
इस बारे में रेलवे के जनसंपर्क अधिकारी अमर सिंह नेगी ने बताया कि सभी छोटे रेलवे स्टेशनों पर टिकट काटने का ठेका रेलवे द्वारा ठेकेदारों को दिया गया है। वे खुद पूरी व्यवस्था यात्रियों के लिए करते हैं। फिर भी अगर दैनिक यात्री ज्यादा परेशान हैं तो वे सीधे डीआरएम से मिलकर अपनी बात रखें और उन्हें अपनी समस्या बताएं। उनकी समस्याओं के समाधान के लिए जल्द ही उचित प्रयास किए जाएंगे।

एंटी करप्शन ब्रांच के एसीपी को करप्शन में जेल

दिल्ली पुलिस किस तरह से लोगो को अपराध के दलदल में फेंकने का काम करती है और अपना स्वार्थ पुरा न होने पर किस तरह से लोगो को झूटे मुकदमो में फंसने का काम करती है इसका नज़ारा कड़कड़डुमा कोर्ट में देखने को मिला । यहाँ पर एक व्यक्ति को जबरन घर से उठाकर उसके परिजनों से 25 हजार रुपये मांगने के आरोप में अदालत ने दिल्ली पुलिस के एंटी करप्शन ब्रांच के एसीपी, एक एएसआई और कांस्टेबल को जेल भेज दिया है। जब एसीपी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा था, उस समय वे आनंद विहार थानाध्यक्ष हुआ करते थे। यह फैसला कड़कड़डूमा कोर्ट स्थित एसीएमएम राकेश पंडित की अदालत ने सुनाया है।
न्यू संजय अमर कालोनी निवासी पुष्पा रानी ने 2 जुलाई 2005 को अदालत में तत्कालीन थानाध्यक्ष वाईएस नेगी, एएसआई जयप्रकाश और कांस्टेबल प्रेमपाल के खिलाफ अर्जी दी थी। पुष्पा रानी का कहना था कि नेगी और जयप्रकाश ने उनसे 8 जून 2004 को 2 हजार रुपये की मांग की थी। उन्होंने रकम देने से मना करते हुए इस संबंध में आला अधिकारियों को शिकायत की थी। 16 मई 2005 को सुबह साढ़े 10 बजे नेगी, जयप्रकाश और प्रेमपाल जबरन उनके घर में घुस गए। तीनों पुलिसकर्मियों ने पुष्पा के पति रामप्रसाद की खूब पिटाई की और घर से बाहर ले आए। पड़ोसी अजय कुमार ने बीच-बचाव का प्रयास किया तो पुलिस कर्मियों ने उसे धमका कर वहां से हटा दिया। इसके बाद नेगी के कहने पर प्रेमपाल ने उनकी दुकान के गल्ले से 6200 रुपये निकाल लिये और रामप्रसाद को थाना आनंद विहार ले गए। पुलिसकर्मियों ने रामप्रसाद को छोड़ने की एवज में पुष्पा से 25 हजार रुपये मांगे। पुष्पा ने रुपये नहीं दिये तो पुलिसकर्मियों ने रामप्रसाद पर शराब तस्करी का मामला दर्ज कर उसके पास से 10 बोतल शराब बरामद दिखा दी। तीनों पुलिसकर्मियों को कई बार सम्मन भेज कर अदालत ने तलब किया, मगर तीनों पेश नहीं हुए। इसके पश्चात तीनों के खिलाफ जमानती वारंट जारी किया गया। सोमवार सुबह मौजूदा समय में एंटी करप्शन ब्रांच के एसीपी वाईएस नेगी, एएसआई जयप्रकाश और कांस्टेबल प्रेमपाल एसीएमएम राकेश पंडित की अदालत में पेश हुए। अदालत ने तीनों पुलिस कर्मियों की जमानत अर्जी खारिज करते हुए 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया।

Tuesday, May 19, 2009

लेखक बन रहे है राजनेता

राजनीति के गलियारों में खासी धमक रखने वाले कई राजनेता इन दिनों अपनी स्मृतियों को कलमबद्घ करने में लगे हुए है, जो आने वाले कुछ महीनों में पुस्तक के रूप में बाजार में आ जाएंगी।

इन बहुप्रतीक्षित पुस्तकों में चौदहवीं लोकसभा के अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी की पुस्तक भी शामिल है। हार्पर कोलिंस नामक प्रकाशन गृह और सोमनाथ दा के बीच इस पुस्तक को एक साल में पूरा करने का करार हुआ था। उनके लोकसभा और पार्टी की सभी जिम्मेदारियों से मुक्त होने के कारण इस पुस्तक के निश्चित समयसीमा के अंदर ही समाप्त होने की उम्मीद की जा रही है। इसके अतिरिक्त उन्होंने पेंग्विन इंडिया से बंगाल की राजनीति पर आधारित एक पुस्तक लिखने का अनुबंध भी किया है। सोमनाथ दा के राजनैतिक कॅरियर में काफी विवादास्पद घटनाओं के होने और सीपीएम से उनके आक्रामक अलगाव के कारण पाठक बहुत ही बेचैनी से प्रतीक्षा कर रहे है कि आखिर वह कहना क्या चाहते हैं? वह खुद भी इस पुस्तक को थोड़ा खट्टा और थोड़ा मीठा बताकर पूर्व प्रचार करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे है। बहुत सारे लोग यह अनुमान भी लगा रहे है कि इसमें वामपक्ष पर तीखा प्रहार किया गया होगा, जो एक बार फिर नई बहस को जन्म देगा।

पूर्व लोकसभा अध्यक्ष और गृहमंत्री के रूप में उपेक्षा के शिकार बने शिवराज पाटिल भी अपनी स्मृतियों को पुस्तक का रूप देने में लगे है। माना जा रहा है कि पाटिल को किसी प्रकाशक ने फायनेंस नहीं किया है। प्रकाशन उद्योग के सूत्रों की मानें तो उनकी पुस्तक में कोई भी विवादास्पद बात नहीं होगी। पाटिल के महाराष्ट्र के सहयोगी ए.आर. अंतुले भी जीवनी लिखने में मशगूल है।

कांग्रेस के एक और वयोवृद्घ नेता अर्जुन सिंह के जीवन की कहानी को पत्रकार रामशरन जोशी कागज पर उतार रहे है। 'एक सहयात्री इतिहास का' नामक यह पुस्तक लगभग तैयार तो है, पर इसका विमोचन चुनाव के बाद किया जाएगा। कुछ लोगों का कहना है कि ऐसा इसके विवादास्पद व विस्फोटक लेखन के कारण किया जा रहा है। उदाहरणस्वरूप पुस्तक में अर्जुन की कांग्रेस के लिए पूर्ण प्रतिबद्घता के बाद भी उपेक्षा मिलने की बात की गई है। एक स्थान पर आत्मकथा लेखक जोशी ने लिखा है कि सोनिया गांधी द्वारा अर्जुन सिंह को राष्ट्रपति न बनाए जाने पर उन्हें व उनके परिवार को गहरा धक्का लगा था। इसी कड़वाहट के परिणामस्वरूप उनकी बेटी ने लोकसभा का चुनाव स्वतंत्र रूप से कांग्रेस के विरुद्घ लड़ने का निर्णय लिया था। आशा की जा रही है कि यह पुस्तक ऐसी ही कुछ कड़वाहटों को बाहर लाएगी। इसके प्रकाशक राजकमल प्रकाशन का कहना है कि चुनावों के बाद शीघ्र ही यह पुस्तक बाजार में होगी।

प्रणव मुखर्जी भी ऐसी ही एक कहानी लिखने में जुटे है। विदेश मंत्री की जिम्मेदारियां संभालने के साथ ही प्रणव अपनी पार्टी के मुख्य कर्ता-धर्ता व खेवनहार रहे हैं। मंत्रिमंडल का शायद ही ऐसा कोई समूह या समिति होगी जिसमें वे किसी न किसी रूप में शामिल न रहे हों। घटनाप्रधान राजनैतिक जीवन और उतनी ही घटनाप्रधान स्मृतियों के कारण आशा की जा रही है कि उनकी यह पुस्तक उस समय के लोगों के जीवन का वर्णन भी करेगी। उन्होंने भले ही अभी तक कोई प्रकाशक नहीं चुना हैं पर उम्मीद जताई जा रही है कि एक बार वह इसके लिए तैयार होने पर उनके पास बहुत सारे विकल्प होंगे।

Saturday, May 9, 2009

खुद को वोट नहीं दे पाए वोट मांगने वाले

इसे परिसीमन के कारण दिल्ली के लोकसभा क्षेत्रों का भूगोल बदलने का परिणाम कहें या निवास स्थान वाले क्षेत्र में वोट देने की बाध्यता, राजधानी की जनता से वोट मांगने वाले कई प्रत्याशी खुद को वोट नहीं दे सके। साथ ही अपने परिवार के सदस्यों का भी मत इन्हें नहीं मिला। इनमें कांग्रेस और भाजपा, दोनों दलों के उम्मीदवार शामिल हैं। नई दिल्ली क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे दोनों प्रमुख उम्मीदवार अपने लिए वोट नहीं डाल पाए, लेकिन दोनों के लिए कई प्रमुख हस्तियों ने वोट डाले। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने नई दिल्ली लोकसभा क्षेत्र में मतदान किया, लेकिन वह भी अपने संसदीय क्षेत्र रायबरेली में वोट नहीं डाल पाईं थीं।
शुरुआत उत्तर-पश्चिम संसदीय क्षेत्र से करें। यहां से कांग्रेस प्रत्याशी कृष्णा तीरथ करोलबाग क्षेत्र में रहती हैं और भाजपा उम्मीदवार मीरा कांवरिया हरि नगर में। कृष्णा तीरथ ने नई दिल्ली संसदीय क्षेत्र में वोट डाला तो मीरा कांवरिया वोट डालने के लिए पश्चिमी दिल्ली संसदीय क्षेत्र पहुंची। चांदनी चौक से भाजपा उम्मीदवार विजेन्द्र गुप्ता भी अपना वोट डालने के लिए रोहिणी में आए जो उत्तर-पश्चिमी संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है। नई दिल्ली से भाग्य आजमाने उतरे भाजपा के ही विजय गोयल ने चांदनी चौक संसदीय क्षेत्र के तहत आने वाले रूप नगर में मताधिकार का प्रयोग किया। उत्तर-पूर्वी संसदीय क्षेत्र से भाजपा उम्मीदवार बीएल शर्मा प्रेम भी अपने लिए वोट नहीं डाल पाए। शर्मा ने नई दिल्ली संसदीय क्षेत्र के तहत आने वाली बटुकेश्वर दत्त कॉलोनी में वोट डाला। इसी सीट से कांग्रेस उम्मीदवार जय प्रकाश अग्रवाल वोट डालने के लिए चांदनी चौक संसदीय क्षेत्र में आए। हां, भाजपा के चेतन चौहान, जगदीश मुखी एवं रमेश विधूड़ी तथा कांग्रेस के महाबल मिश्रा इस मामले में सौभाग्यशाली रहे। उन्होंने खुद अपना वोट डाला। पूर्वी दिल्ली से भाग्य आजमा रहे कांग्रेस के संदीप दीक्षित भी वोट डालने के लिए नई दिल्ली संसदीय क्षेत्र में गए तो कपिल सिब्बल को भी वोट डालने नई दिल्ली संसदीय क्षेत्र में जाना पड़ा। नई दिल्ली से चुनाव लड़ रहे कांग्रेस के अजय माकन ने पश्चिमी दिल्ली के तहत आने वाले राजौरी गार्डन में मताधिकार का इस्तेमाल किया तो दक्षिणी दिल्ली से कांग्रेस उम्मीदवार रमेश कुमार ने पश्चिमी दिल्ली के तहत आने वाले पश्चिम पुरी इलाके में अपने भाई सांसद सज्जन कुमार के साथ मतदान किया।

चौंधिया देती है कुर्सी की चमक

चुनावी महाकुंभ के समय में जब चारों ओर सिर्फ कुर्सी के लिए ही मारामारी हो रही है, तो देखने में अदना सी लगने वाली कुर्सी की महत्ता अपने आप ही समझ आ जाती है।
यूं तो विक्रमादित्य और राम के इस देश भारत में सिंहासन न्यायप्रियता का प्रतीक माना जाता रहा है, लेकिन पिछले कुछ सालों में दो अक्षर के इस शब्द के मायने ही बदल गए हैं। अब कुर्सी उस शक्ति का प्रतीक बन गई है, जिस पर बैठते ही व्यक्ति अपने को सर्वशक्तिमान समझने लगता है।
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे ऊंची कुर्सी की दौड़ में मनमोहन सिंह और लालकृष्ण आडवाणी सबसे आगे हैं, लेकिन मायावती, शरद पवार और लालू प्रसाद यादव भी गाहे-बगाहे इसकी सवारी करने की अपनी इच्छा जाहिर कर चुके हैं।
ऐसा नहीं है कि छोटी सी कुर्सी के चारों ओर घूमने में केवल भारत के लोग ही आगे हैं, इसने तो पूरी दुनिया के लोगों को ही अपने चारों ओर चक्कर कटवा रखा है। इसे कुर्सी की ही महत्ता कहा जाएगा कि दुनिया के एक सबसे शक्तिशाली देश के लोगों ने एक अश्वेत के कुर्सी पर विराजते ही उसके सामने झुकना शुरू कर दिया है। यह बात ध्यान रखने वाली है कि यह देश सालों से गोरों की ही शक्ति का प्रतीक रहा है।
बात अगर भारतीय राजनीति की करें तो पता चलेगा कि भारत में तो कुर्सी प्रेम ने सारे रिकार्ड ही तोड़ दिए हैं। भारतीय राजनेताओं के बीच अब एक नई परंपरा ने जोर पकड़ लिया है। खुद को कुर्सी मिलने की संभावना न दिखे तो तुरंत अपनी पत्नी को उस पर विराजमान कराने की जुगत बिठानी शुरू कर देते है। लालू प्रसाद यादव के इस परंपरा की नींव रखते ही मोहम्मद शहाबुद्दीन, सूरजभान, प्रियरंजन दासमुंशी और पप्पू यादव जैसे नेता उनके रास्ते पर चल निकले।
कई राजनेता ऐसे भी हैं, जो स्वयं वर्षो' से कुर्सी का सुख भोग रहे हैं और उनकी संतानें भी इसी राह पर अग्रसर हो रही हैं। वैसे तो यह सूची बहुत लंबी है पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, शरद पवार, अर्जुन सिंह, करूणानिधि, मुरली देवड़ा, मुलायम सिंह यादव और वसुंधरा राजे सिंधिया जैसे नेताओं के नाम इसमें प्रमुख हैं।
कुर्सी के जलवे ने क्रिकेट के मैदान में चौके-छक्के जड़ने वालों पर भी अपनी जादू की छड़ी घुमा दी। यही कारण है कि मोहम्मद अजहरूद्दीन, नवजोत सिद्धू और चेतन शर्मा जैसे क्रिकेटर भी संसद में अपनी कुर्सी रिजर्व कराने के लिए चुनाव मैदान में कूद पडे हैं।
फिल्म उद्योग भी इस कुर्सी के आकर्षण से वंचित नहीं रहा। विनोद खन्ना, जयाप्रदा, शेखर सुमन, शत्रुघ्न सिन्हा, चिरंजीवी आदि इसके उदाहरण हैं। यह बात दीगर है कि पिछला लोकसभा चुनाव बीकानेर से भाजपा के टिकट पर जीत चुके अभिनेता धर्मेद्र से मतदाता इसलिए नाराज हो गए क्योंकि इस ही मैन ने सांसद की कुर्सी हासिल करने के बाद मतदाताओं को ही बिसरा दिया।
कुर्सी सेहत से भी जुड़ी है। अगर आप कंप्यूटर पर काम करते हैं और आपकी कुर्सी का आकार मेज के अनुरूप नहीं है तो आपकी कुहनी से लेकर पीठ तक में दर्द हो सकता है और आपको डाक्टर की कुर्सी तक का रूख करना पड़ सकता है। एक बात और आपातकाल के दौरान अमृत नाहटा द्वारा एक फिल्म बनाई थी जिसका शीर्षक था 'किस्सा कुर्सी का', लेकिन कुर्सी पर बैठे लोग इस किस्से से इतना खफा हुए कि उन्होंने इस फिल्म पर ही रोक लगा दी थी।

Friday, May 1, 2009

मेरठ की दो कातिल लड़कियो की दास्ताँ - ताने और पिटाई ने बना डाला कातिल


मैं बहुत छोटी थी, तो सभी लोग बेहद प्यार करते थे। सुंदर भी काफी थी। पिता प्रेमवीर सिंह हाइडिल में जूनियर इंजीनियर थे। काफी प्यार से पढ़ाना शुरू किया था। लगता ही नहीं था कि घर के भीतर ही कभी ऐसा भेदभाव शुरू हो जाएगा। शुरुआती शिक्षा जेपी स्कूल से की और फिर 2002 में इंडियन इंस्टीट्यूट आफ फैशन डिजाइनिंग से डिप्लोमा किया। वर्ष 2005 में मिशिका गु्रप की तरफ से मिस मेरठ चुना गया। वह इस प्रतियोगिता में हिस्सा नहीं लेना चाहती थीं लेकिन फैशन डिजाइनिंग से जुड़ी उनकी एक मेम के कारण ही शामिल हुई। बस इसके बाद ही परिवार के लोगों का नजरिया बदलना शुरू हो गया। भाई गौरव ने मारपीट शुरू कर दी। वह अभद्रता करता था और यहां तक टीका टिप्पणी करता था कि वह धामा की नाजायज औलाद है। ये बातें कई बार उसके पिता तक ने कहीं जो उसे तीर की तरह चुभीं। कई बार गौरव ने पिटाई करते हुए कहा कि आवारा लड़कों की तरह घूमती फिरती है। तेरे ऊपर जितना खर्च करता हूं, अगर उतना किसी कुत्ते पर खर्च करता तो वो भी वफादार रहता। भाई के कारण ही वो मेरठ छोड़कर दिल्ली चली गई और नोएडा के सेक्टर सात में एक हॉस्टल में रहने लगी। दिल्ली के पॉलीटेक्निक कालेज में एडमिशन लिया। पर उसे कभी भी गौरव गाली बकते हुए बुला लेता था और कहता था कि घर के सभी काम तू करेगी। गौरव की उसके बारे में कितनी घटिया सोच थी, वो इस बात से ही पता चल सकता है कि एक दिन उसने अपने दोस्त विकास से कहा कि प्रियंका को पटा ले। बुखार तक में उसकी पिटाई की जाती थी और हॉस्टल से जबरन बुलाया जाता था। पिता से भाई की शिकायत की तो उन्होंने भी डपटते हुए अपशब्द कहे। पिता की हालत खराब हुई तो उसने ही दिल्ली से आकर पिता को आनंद अस्पताल में भर्ती कराया। वहीं उसकी मुलाकात अंजू से हुई। वह उसे अपने घर ले आई तो उसके सामने भी गौरव ने उसकी पिटाई की। ऐसे में वह घर आने से कतराने लगी कि उसकी पिटाई होगी। उसे मां की मौत की खबर देकर बहाने से बुलाया गया और फिर पिटाई की गई।
इसके बाद वह अप्रैल माह में अंजू और उसके चचेरे भाई अजेंद्र के साथ चली गई। ऐसे में उसकी मां ने अमरोहा देहात थाने में अपहरण की रिपोर्ट लिखाई जिसमें उसने बयान दिए कि वह अपनी मर्जी से गई है। ऐसे में गौरव ने कई बार ताने मारे कि वह उसके पिता की ऑरिजनल औलाद नहीं। वह खुद परेशान थी और ऊपर से अजेंद्र और उसके पिता ने उससे मुंह काला किया। वह अमरोहा से निकलकर दिल्ली चली गई और राष्ट्रीय महिला आयोग की शरण ली। अपने परिजनों के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई। यहीं एक टीवी चैनल से भी मदद के लिए संपर्क किया। मामा के घर भी जाने की कोशिश की पर बात न बनी। इसके बाद एक परिचय से सहारनपुर तरुण के पास अंजू के साथ पहुंची और वहां से अमित के साथ मेरठ भेज दिया। यहां आकर अपनी मां से फोन पर संपर्क बनाने की कोशिश करती रही पर मां बराबर गाली गलौज करती रही। पीवीएस चले गए और वहां से भी फोन किए। रात में घर पहुंचे तो मां ने घुसते ही गालियां दीं। कहा कि महिला आयोग में मेरे बेटे को फंसाना चाहती है। वो इकलौता है। केस वापस ले ले। मां ने कहा कि वह अकेली भटकती फिरती रहती है। परिवार से भी उसे सहानुभूति और मदद नहीं मिलती। क्या ये सब ठीक है? इस बात को लेकर कहासुनी होती गई और और फिर माहौल इतना उत्तेजनात्मक हो गया कि गला घोंट दिया।
पहले रेप..फिर ब्लू फिल्म
-जिन दोनों युवतियों ने डबल मर्डर में अपना हाथ कबूल किया, उनके साथ भी ऐसा ही हुआ, जो ताउम्र उन्हें मौत के समान ही लगेगा। एक युवती के साथ उसके सगे चाचा ने रेप और ब्लू फिल्म तक तैयार कर डाली। भाई ने भी दोस्तों के साथ उससे रेप किया। हालांकि पुलिस अब ऐसे लोगों पर भी कार्रवाई करने का मन बना रही है और अमरोहा पुलिस से रिकार्ड तलब किया है।
प्रेम प्रयाग कालोनी में एक सप्ताह पूर्व हुए रिटायर्ड इंजीनियर प्रेमवीर सिंह और उनकी पत्‍‌नी संतोष की हत्या के मामले में पुलिस ने उनकी बेटी प्रियंका और उसकी सहेली अंजू को आरोपी बनाया है। दोनों ने पुलिस के सामने अपना हाथ कबूल कर भी लिया लेकिन इन दोनों ही युवतियों को उनके ही परिजनों ने जीते जी मार दिया। अंजू की अस्मत को तो उसके सगे चाचा डीपी सिंह ने उस वक्त रौंद डाला, जब वह बीए प्रथम वर्ष में पढ़ रही थी। यही नहीं उसकी ब्लू फिल्म तक तैयार की गई। पुलिस के मुताबिक, डीपी सिंह ने ही नहीं, उसके बेटे अजेंद्र ने भी अंजू की अस्मत को रौंदा और अपने दोस्तों के हवाले भी किया। उसके निर्वस्त्र कर फोटो ही नहीं खींचे गए, बल्कि ब्लू फिल्म भी तैयार की गई।
कमोबेश ऐसा ही प्रियंका के साथ भी हुआ। अपने फोटो और फिल्म पाने के लिए वो गिड़गिड़ाती रहीं लेकिन किसी ने उनकी नहीं सुनी। उल्टे उन्हें धमकाया गया। अगर किसी से कुछ कहा गया तो ठीक न होगा। युवतियों का आरोप तो यहां तक है कि दो माह तक उन्हें मकान में बंद कर यातनाएं दी गई और दुराचार किया गया।
एसएसपी रघुवीर लाल का कहना है कि फिलहाल हत्या के मामले में तो दोनों युवती आरोपी बनी ही हैं, अमरोहा देहात में उनके साथ जो रेप और ब्लू फिल्म बनाने की घटनाएं हुई, उन्हें अलग से जांच शुरू हो रही है। एसएसपी ने बताया कि इस पूरे मामले की जांच की रिपोर्ट अमरोहा भेजी जाएगी ताकि वहां आरोपियों के खिलाफ भी कार्रवाई हो सके।
अजेंद्र से शादी नहीं की
-प्रियंका ने साफ कहा कि अजेंद्र से कोई शादी नहीं की। वह जबरन उसके पीछे लगा था। उसके और उसके बदनाम दोस्तों के कारण भी खासी दिक्कत हुई।
गौरव पिटाई न करता तो हत्या न करती
-प्रियंका ने साफ साफ कहा कि अगर गौरव का उसके प्रति खराब रवैया न होता तो शायद उसके माता पिता की जान भी न जाती। भाई की पिटाई और नाजायज औलाद कहने जैसे शब्द खंजर की तरह सीने में धंसते थे और इसी उत्तेजना के चलते उसने मां और पिता की हत्या कर दी। हालांकि इन हत्याओं का उसे बेहद दुख है पर अब हो भी क्या सकता है?
उसने कहा मां का रवैया भी उसके साथ बेहद खराब था। घटना की रात कई घंटे तक उसकी मां से बात हुई लेकिन उसी वक्त उनके कई शब्द तीर की तरह चुभे और मां ने उसे थप्पड़ भी मारा। ऐसे में गुस्से में उसने मां का गला दबा दिया। मां की चीख निकली तो पिता भी जाग गए और पूछा क्या हो रहा है। उन्होंने दरवाजा बंद ही रखा और कह दिया कि कुछ नहीं हुआ। खिड़की पर उन्होंने चादर डाल दी। प्रियंका ने बताया कि मां का गला दबाने से उनकी नाक से खून आया तो उन्होंने कॉटन से रोक दिया। उसी वक्त मुंह से खून आया तो उसमें कपड़ा ठूंस दिया। कुछ देर बात पिता भीतर आने लगे तो अंजू ने उनके हाथ में चाकू मार दिया। इसके बाद उनकी हाथापाई होने लगी जिसमें वह गिर गए। इससे सिर में चोट लगी। फिर उन्होंने कई चाकू मारे और उनके मुंह में भी कपड़ा ठूंस दिया। प्रियंका ने बताया कि घटना के बाद करीब तीन घंटे तक घर में ही रहे, क्योंकि दोनों परेशान थे कि ये क्या हो गया और अब क्या होगा। मां पर इतना तरस आया कि उसके चेहरे का खून तक साफ किया और क्रीम भी लगाई। एसएसपी रघुवीर लाल ने बताया कि दोनों युवतियों से सभी सामान बरामद हो गया। एफडी करीब सात लाख रुपये की थी। इस काम में एसओजी के अलावा सीओ सदर अतुल श्रीवास्तव और एसओ मेडिकल आरवी कौल का खास योगदान रहा।
डीपी और उपेंद्र ने नसें तक काटीं
-प्रियंका ने रोते हुए बताया कि उसके और अंजू के साथ क्या कुछ अत्याचार नहीं हुआ। डीपी सिंह और अजेंद्र ने तो उसके हाथ की नसें तक काट दी थीं। दो माह तक उन्हें घर में ही बंद रखा। अमरोहा के अपर पुलिस अधीक्षक उदय प्रताप ने उन्हें मुक्त कराया।
प्रियंका ने कभी चूहा नहीं मारा वह मम्मी पापा को क्या मारेगी
-हमारी प्रियंका ने कभी जिंदगी में एक चूहा तक नहीं मारा है। वह मम्मी पापा को मारेगी? हत्या का राज अंजू के पेट में छिपा है। पुलिस की मौजूदगी में जो कहानी प्रियंका व अंजू ने आज बताई है वह पूरी तरह मनगढ़ंत हैं। यदि अंजू व प्रियंका को अलग-अलग कर कड़ी पूछताछ की जाय तो सच्चाई स्वयं पता चल जाएगी। हत्या करने में यह दोनों नहीं बल्कि कोई और मिलेगा। पुलिस यदि अब असली हत्यारों तक पहुंचना चाहती है तो मामले की गहनता से ही जांच करे।
यह कहना है मारे गए रिटायर्ड जेई प्रेमवीर सिंह व उनकी पत्‍‌नी संतोष सिंह के परिजनों का। हत्या में बेटी प्रियंका एवं उसकी सहेली अंजू की गिरफ्तारी कर पुलिस द्वारा हत्याकांड का खुलासा परिजनों के गले नहीं उतर रहा है। वह दावा कर रहे हैं कि हत्या ये दोनों नहीं कर सकती हैं। हत्या के पीछे कोई और है जिसे अभी छुपाया जा रहा है। अथवा प्रियंका एवं अंजू पर कोई दबाव है। उन्होंने पुलिस की कार्रवाई को भी कटघरे में खड़ा किया। परिजनों ने रोते बिलखते कहा कि सहेली अंजू ने उनका पूरा घर बर्बाद कर दिया है। परिजनों ने बताया कि प्रियंका 07 में दिल्ली पालीटेक्नीक में पढ़ने गई थी। पढ़ने जाने से पहले पूरी तरह से ठीक थी। वहीं दिल्ली स्थित हॉस्टल में वह अंजू के संपर्क में आई थी। उसने प्रियंका को भी वहां गुमराह कर जाल में फंसा लिया। उन्होंने आरोप लगाया कि अंजू दिल्ली स्थित हास्टल में गलत नाम पता देकर रहती थी। हास्टल में जाकर यदि मेरठ पुलिस जांच करे तो सच्चाई सामने आ जाएगी।
ऐसे पहुंची पुलिस प्रियंका और अंजू तक
-सात दिन तक खाक छानने वाली पुलिस को डबल मर्डर में सफलता मिली भी तो अपने ही घर में। प्रियंका और अंजू तक पहुंचने के लिए पुलिस की कई टीमें बनाकर छापेमारी कराई गई पर दोनों युवतियां मेरठ में ही बैठकर पुलिस की कार्रवाई पर नजर रखे रहीं। तमाम लोगों को उठाया गया और इसमें वे भी शामिल थे जो प्रियंका और अंजू के करीबी रहे। टीपी नगर क्षेत्र में दो दिन तक घरों को खंगाला गया और दोनों युवतियों को दबोचा गया तो यहीं से। फिर पूरा मामला खुलता चला गया।
डबल मर्डर के तुरंत बाद पुलिस को सबसे पहले शक गया अंजू के चचेरे भाई अजेंद्र और उसके साथियों पर। इसके लिए टीमों को अमरोहा और अलीगढ़ भेजा गया। दो टीमों को दिल्ली और नोएडा में प्रियंका की तलाश में लगाया गया। चूंकि घटना में संतोष का मोबाइल फोन भी गया था तो पुलिस ने सबसे पहले उसके मोबाइल की कॉल डिटेल निकलवाई। उस फोन से आखिरी कॉल सुबह साढ़े पांच बजे की गई और वो भी दशमेशनगर के टावर के माध्यम से। यह तो साफ हो गया कि हत्यारे दशमेश नगर की तरफ गए हैं। लेकिन पुलिस ने समझा शायद उस रास्ते से आगे बढ़ गए हैं। मोबाइल को चूंकि तोड़ दिया गया, इस कारण उसके आगे कॉल हो ही नहीं पाई। एसएसपी रघुवीर लाल ने बताया कि सबसे पहले अमरोहा क्षेत्र में दबिश देकर कुलदीप को उठाया गया। कुलदीप अजेंद्र का करीबी है। कुलदीप से ही पता चला कि प्रियंका उनके पास नहीं है। वह सहारनपुर में तरुण के पास हो सकती है। तरुण की सेमसंग कंपनी की एजेंसी है। वे उसके पास काम मांगने गयी थीं। सहारनपुर दबिश देकर तरुण से पूछताछ की गई तो उसने प्रियंका के बारे में बताया जरूर लेकिन ज्यादा जानकारी अमित लोधी को होने के बारे में कह दिया। अब पुलिस के हाथ अमित लोधी नहीं आ रहा था। कप्तान ने बताया कि इसके चलते ही यहां पिछले दो दिनों से युवतियों को खोजने का अभियान चल रहा था। दशमेशनगर के अलावा गुरुनानक नगर को भी खंगाला गया। कुछ पता नहीं चला तो फिर कमला नगर को चुना गया। उन्होंने खुद पान वाले, दूध वालों से पूछताछ की। घर घर जाकर दो युवतियों के किराये पर रहने की जानकारी ली। इसी बीच अमित लोधी को भी उठा लिया और उसने ही मकान बताया। यहां एक छोटा सा कमरा पांच सौ रुपये किराये पर दिलाया गया था। कप्तान ने बताया कि यह कमरा एक नवंबर को ही लिया गया था और तब से लगातार यहीं रह रही थीं और प्रियंका अपनी मां के संपर्क में थी। घटना करने के बाद दोनों तड़के यहां अपने कमरे पर पहुंची थीं और फिर बराबर समाचार पत्रों के जरिये केस के बारे में पढ़ रही थीं। यहीं से दस नवम्बर की शाम को दोनों पहले पीवीएस पहुंचीं और वहां से जागृति विहार। इस बीच बराबर प्रियंका अपनी मां से बात करने की कोशिश करती रही लेकिन मां संतोष बराबर उसे किसी के बैठे होने की बात कहकर टाल मटोल करती रही। रात 9.13 बजे तक उसने फोन पर मां से बात की और इसके बाद अंजू के साथ घर पहुंची। एसएसपी ने बताया कि शुरू में तो प्रियंका और अंजू ने हत्या में अजेंद्र और दूसरे कई लोगों के भी शामिल होने की बात कही लेकिन अंतत: उन्होंने सही स्थिति को बता दिया। कहा कि उनके अलावा हत्या में कोई दूसरा शामिल नहीं था।
एटीएम से चलता था खर्च
-एसएसपी ने बताया कि प्रियंका और अंजू के ब्वाय फ्रेंड अंशुल और एक सहारनपुर के दोस्त के एटीएम कार्ड के जरिये दोनों अपना खर्च चलाती थीं। घर से उन्हें कोई खर्च नहीं मिलता था।
दोस्तों का सहारा लिया पुलिस ने
-एसएसपी ने बताया कि घटना को खोलने के लिए उन्होंने प्रियंका और अंजू के सभी करीबी दोस्तों का सहारा लिया। अमित लोधी के अलावा तरुण, अंशुल, कुलदीप से भी जमकर पूछताछ की गई और उन्होंने ही उनकी गिरफ्तारी का रास्ता तैयार कराया।
वो सात दिन
-प्रियंका और अंजू के हत्या के बाद के सात दिन बेहद तनाव में और अब क्या होगा, सोचते हुए गुजरे। दोनों ही रोजाना समाचार पत्र पढ़ती थीं और उसमें हत्या की खबर पर विशेष नजर रखती थीं। कहते तो यहां तक हैं कि इस बीच में उन्होंने वकीलों की राय भी ली।
भाई पर लगाये आरोप निराधार
-प्रियंका द्वारा अपने भाई गौरव पर लगाए गए उत्पीड़न और मारपीट आदि के सभी आरोपों को परिजनों ने पूरी तरह निराधार बताया है। कहा कि दिल्ली में रहने वाली प्रियंका का पूरा खर्च गौरव ही उठाता था। गौरव द्वारा प्रियंका के साथ में मारपीट आदि के आरोप के बाबत परिजनों ने कहा कि वह अधिकांश बाहर रहा है। ऐसे में कब उसका उत्पीड़न किया गया।
सभी प्यार करते थे
-परिजनों ने बताया कि प्रियंका ने जो अपने परिवार में तिरस्कार और उपेक्षा आदि का आरोप लगाया है, उसमें भी कोई दम नहीं है। सबसे ज्यादा उसको ही घर में सब प्यार करते थे। लाड़ली बेटी थी वह। किसी ने उसे कभी हाथ तक नहीं लगाया। यदि उनकी यह बात गलत लगे तो पूरे रिश्तेदारों व कालोनी तक में पूछताछ की जा सकती है।
लड़की मर्डर नहीं कर सकती
-परिजनों ने कहा कि पुलिस भले ही कितना भी दावा क्यों न करे? प्रियंका एवं उसकी सहेली अकेले मर्डर नहीं कर सकती। मर्डर के पीछे कोई और है। उन्होंने मर्डर की साजिश रचने में अंजू की मुख्य भूमिका होने की बात कही। साथ ही यह भी कहा कि मर्डर करने वाले कोई और अभियुक्त हैं। परिजनों ने यह भी दावा किया है कि इस मर्डर में करीब तीन लोग शामिल रहे हैं।
प्रेमवीर को मिली थी धमकी
-परिजनों ने बातचीत में यह भी खुलासा किया कि करीब दो महीने पूर्व प्रेमवीर को हत्या की धमकी मिली थी। यह धमकी सहेली अंजू व उसके साथ रहने वाले लोगों ने दी थी। धमकी की बात प्रेमवीर ने अपने परिवार में बतायी थी। तीन चार बारह यह धमकी दी गई थी।
वसीयत में गौरव का नाम
-परिजनों ने बातचीत में यह भी आज खुलासा किया कि प्रेमवीर सिंह ने जो वसीयत की थी, उसमें केवल सोनिया व गौरव का नहीं केवल बेटे गौरव का ही नाम लिखा है। पुलिस ने भी गौरव के नाम ही वसीयत होने की पुष्टि की है।
हर कोई हैरान, बेटी ने कैसे किया काम तमाम?
-पुलिस ने सात दिन की कड़ी मशक्कत के बाद सेवानिवृत्त जेई प्रेमवीर सिंह व उनकी पत्‍‌नी संतोष सिंह की घर में ही की गई हत्या की आरोपी उनकी बेटी प्रियंका व उसकी सहेली अंजू को गिरफ्तार कर लिया है, लेकिन हर कोई हैरान हैं कि क्या दो युवती इस तरह से हत्या कर सकती हैं? अथवा इस दोहरे हत्याकांड का मास्टर माइंड व हत्यारा कोई और है, जोकि अभी तक पर्दे के पीछे है तथा वह पुलिस से बचा हुआ है।
मेरठ पुलिस ही नहीं सूबे में संभवत: यह पहली घटना होगी जिसमें हत्या में सिर्फ दो युवतियों के शामिल होने की बात पुलिस ने कही है। पुलिस के इस दावे में कितना दम है, यह तो पुलिस ही बता सकती है लेकिन दोहरी हत्या में सिर्फ दो युवतियों के होने का जो दावा किया गया है उससे कई सवाल भी उठ रहे हैं। पुलिस ने प्रियंका एवं अंजू की गिरफ्तारी के बाद यह दावा किया है कि इन दोनों ने हत्या की है, परन्तु परिजनों का तर्क है कि उनकी हत्या में कोई और भी शामिल है जो अभी तक पकड़ा नहीं गया है।
परिजन पहला सवाल यही उठा रहे हैं कि अकेले दोनों माता-पिता की हत्या नहीं कर सकतीं। क्योंकि हत्या से पूर्व प्रेम वीर सिंह के साथ संघर्ष भी हुआ था। साथ ही उनके दांए हाथ में कुछ बाल आदि भी मिले थे, जो कि किसी पुरुष के लग रहे थे। भले ही प्रेमवीर बीमारी की हालत में ही क्यों न होते? वह इतने भी कमजोर नहीं थे कि जो बेटी व उसकी सहेली के बस में आ जाते। जबकि उन पर कोई हथियार भी नहीं था। सच तो यह है कि यदि दोनों का वह कड़ा प्रतिरोध भी कर देते तो उनको स्वयं संभलना तक मुश्किल हो जाता। दूसरे यह भी किसी के गले नहीं उतर रहा है कि दोनों मिलकर घर में संतोष की हत्या कर दें और एक घंटे तक प्रेमवीर को पता ही नहीं चले। क्योंकि पीएम रिपोर्ट में भी यह बात सामने आ गई है कि पहले संतोष की हत्या हुई। इसके करीब एक घंटे बाद फिर प्रेमवीर सिंह की हत्या की गई। हालांकि बेटी प्रियंका ने इस बारे में यह बात कही है कि उन्होंने कमरा बंद करके मां संतोष की हत्या की बात को छिपाये रखा था। ताकि पिता को पता न चले। इस कारण ही पर्दे आदि डाले थे। हत्या के बाद सवा चार बजे तक ही प्रियंका व अंजू ने घर में रहने की बात कही है। इसके बाद मकान से जाने में रिक्शा से रवाना होने की बात कही है। यह बात भी किसी के गले नहीं उतर रही है। पहले तो यह कि उस सुनसान कालोनी में उस समय रिक्शा वहां तुरंत कैसे मिल गया? यह संभव नहीं है। दूसरे हत्या करने के बाद हत्यारा ऐसे साधन का प्रयोग नहीं करेगा? जिससे बाद में कोई उसको पीछा कर उसको दबोच ले। जबकि 11 नवंबर की सुबह जब पुलिस ने वहां अपना डॉग स्क्वायड घुमाया था तब वह कालोनी में दूर तक गया था। उससे एक बात यह साफ हुई थी कि संभवत: वहां हत्या करने के बाद सभी हत्यारे किसी वाहन आदि से रवाना हुए हैं। कार के निशान आदि भी उस दिन मिले थे। ऐसे में इस बात की पूरी संभावना है कि हत्या करने में दोनों के अलावा कोई और भी रहा है जिसकी तरफ परिजन साफ इशारा कर रहे हैं।
प्रियंका ने ही बांधा था कुत्ते को
-प्रियंका ने बताया कि घर में जो उनका कुत्ता था उसको उसने ही बांधा था। विदित हो कि हत्या के बाद सुबह जब पुलिस घर पहुंची थी तो उसने एवं अन्य लोगों ने यह बात कही थी कि वह कुत्ता बेहद खतरनाक था। परिवार के अलावा अन्य कोई व्यक्ति उसे काबू नहीं कर सकता था।
'..मैं अपनी मां को याद करूंगी'
-प्रियंका चौधरी उर्फ गुड़िया कभी मां के बेहद नजदीक थी। अब अचानक वह मां के साथ पिता की हत्या की आरोपी होने के कारण गिरफ्तार हो चुकी है। प्रियंका ने वर्ष-2005 में मिशिका ग्रुप द्वारा आयोजित की गई प्रतियोगिता में भाग लेकर मिस मेरठ का खिताब पाया था। उस समय जब निर्णायक मंडल के सदस्यों ने उससे यह सवाल पूछा था कि यदि वह 'मिस मेरठ' चुनी जाती हैं तो सबसे पहले क्या करेंगी? उसने तब बिना किसी देरी कहा था कि अपनी मां को याद करेगी। अब उसी माता की हत्या के आरोप में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है।

राजधानी के 191 मतदान स्थल संवेदनशील

लोकसभा चुनाव के मद्देनजर दिल्ली पुलिस ने राजधानी के 191 मतदान स्थलों को संवदेनशील एवं 28 मत को अति-संवेदनशील घोषित किया है। दिल्ली पुलिस ने इन मतदान स्थलों की सूची मुख्य निर्वाचन अधिकारी कार्यालय को सौंप दी है। इस बार दक्षिण जिला के 32 मतदान केंद्रों को संवेदनशील माना गया है। वहीं पूर्वी दिल्ली एवं उत्तर-पश्चिम जिले के 6 मतदान स्थलों को अति संवदेनशील की श्रेणी में रखा गया है। गत वर्ष नवंबर माह में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान दक्षिण जिला के ही 34 मतदान स्थलों को संवदेनशील एवं उत्तर-पूर्व जिले के आठ मतदान स्थलों को अति संवेदनशील घोषित किया गया था।
दिल्ली पुलिस की ओर से निर्वाचन कार्यालय को भेजी गई सूची में बाहरी दिल्ली जिले के 12, उत्तर-पश्चिम जिले के 14, उत्तरी जिले के 10, मध्य जिले के 13, दक्षिण जिले के 32, दक्षि ण-पश्चिम जिले के 15, पश्चिम जिले के 10, नई दिल्ली जिले के 2, पूर्वी जिले के 13 एवं उत्तर-पश्चिम जिले के 21 मतदान स्थलों को संवेदनशील घोषित किया गया है। इसी तरह बाहरी दिल्ली जिले के 1, उत्तर-पश्चिम जिले के 6, उत्तरी जिले के 4, दक्षिण जिले के 1, दक्षिण-पश्चिम जिले के 2, पश्चिम जिले के 1, पूर्वी जिले के 6, एवं उत्तर-पश्चिम जिले के 4 मतदान स्थलों को अति संवेदनशील घोषित किया गया है। गत वर्ष की तरह इस बार भी मध्य जिले एवं नई दिल्ली जिले में किसी बूथ को अति संवदेनशील घोषित नहीं किया है।

Saturday, April 25, 2009

जिंदगी की यही रीत है...


चाट चाट मेरी जान चाट आखिर गिलहरी का भी तो मन करता है कोई उसे प्यार करे...


ये जीवन है...इस जीवन का यही है यही है....यही है रंग रूप

आज तो मई पता करके ही रहूँगा ये है क्या आखिर...इसमे ये कौन है...

थोडे गम है थोडी खुशियाँ...यही है यही है यही है रंग रूप...



मेरे लाल से तो सारा जग झिलमिलाये...


इन सभी फोटो के कैप्शन मेरे भाई अज्येंदर शुक्ला ने लिखे हैं। इसके लिए उनका धन्यवाद्।

बोले तो बिंदास...


कैसे कहे हम... प्यार ने हमको क्या क्या खेल दिखाए...


अपुन बोला तू मेरी लैला...वो बोली फेकता है साला...

इन्तहा हो गई इंतज़ार की...


आज मई उपर आसमा नीचे...आज मई आगे जमाना है पीछे...



तेरे हुस्न की क्या तारीफ़ करू की हम तुमसे मोहब्बत करते है...

जिंदगी मौत न बन जाए सम्भालों यारों...


आए हो मेरी जिंदगी में तुम बहार बन के...


पलट मेरी जान तेरे कुर्बान की तेरा ध्यान किधर है...

आ देखे ज़रा किस्म कितना है दम


इधर दौड़ है उधर दौड़ है...ये जीना यारों दौड़ है...


दौड़ा दौड़ा भागा भागा सा... दौड़ा दौड़ा भागा भागा सा...वक्त ये सख्त है थोड़ा सा...

एहसास... ये एहसास ही तो है!!!


तेरा साथ है कितना प्यारा कम लगता है जीवन सारा


कब अलविदा न कहना...

तेरा साथ है तो मुझे क्या खुशी है अंधेरे में भी मिल गयी रौशनी है


किसी ने अपना बना के मुझको मुस्कुराना सिखा दिया



अबकी शायद हम भी रोयें सावन के महीने में

bhavnao ko samjho!!!


न कोई है न कोई था जिंदगी में तुम्हारे सिवा


तेरा मुझसे है पहले का नाता कोई यूंही नही दिल लगता कोई

जरा नज़रों से कहदो जी निशाना चूक न जाए


ये हमे है यकीन बेवफा वो नही फ़िर वजह क्या हुई???



बच न सका कोई आए जितने



Friday, April 24, 2009

अनूठे नेता, अलबेले अंदाज

एक वोट दे दे, ओ देश के जमाईबाबू
एक वोट दे दे
सुशासन देंगे, कुशासन भगाएंगे
देंगे हम खुशहाल भारत,
ओ बाबू एक वोट दे दे
ओ प्यारी प्यारी मम्मी, एक वोट दे दे
ओ प्यारी न्यारी बहना, एक वोट दे दे
वोट है जन्मसिद्ध अधिकार आपका
इस अधिकार से क्यों वंचित रहना,
ओ बाबू, ओ मम्मी, ओ बहना एक वोट दे दे]
*****
अगर गीतकार आनंद बख्शी आज जीवित होते, तो शायद इसी तर्ज पर कोई गीत लिखते। दरअसल, इस गीत के साथ नेताओं की जो छवि यकायक उभरकर सामने आती है, उसमें उनका गेट-अप, बातचीत का अंदाज और इन सबको मिलाकर बना व्यक्तित्व शामिल होता है। जमाने के साथ बहुत कुछ बदला, न केवल वक्त के साथ नेताजी की वेश-भूषा का कॉन्सेप्ट बदला, बल्कि बदला उनका अंदाज भी।
आज वोट मांगने के तरीके में भी यह बदलाव खूब दिखाई दे रहा है। वोट मांगते वक्त कभी नेता हाथ जोड़ लेते हैं, तो कभी विनम्रता से एक ग्लास पानी की फरमाइश करते हैं। सच तो यह है कि आजादी के ठीक बाद नेताओं का अपनी सादगी व वोट मांगने की शैली पर बहुत जोर था। इसका एक कारण था उनका स्वाधीनता आंदोलन से निकल कर आना। दरअसल स्वदेशी आंदोलन की छाया उन पर बनी हुई थी। यह भी एक वजह थी कि खासकर उत्तर भारत के नेताओं के सिर पर गांधी टोपी उनकी पोशाक का धीरे-धीरे एक हिस्सा बन गई थी।
यह जानना भी दिलचस्प होगा कि नेताओं के वोट मांगने के अंदाज में बदलाव किस तरह आया? शुरू में उनका जनता से सीधा संपर्क था। कुछ शीर्ष नेताओं को छोड़, शेष प्रतिनिधि अपने क्षेत्र में घर-घर जाकर मतदाताओं से संपर्क करते थे। नुक्कड़ सभाओं की भी अहमियत होती थी। भोजपुरी इलाके में जब ये वोट मांगने जाते, तो वे वोटरों से कहते थे, 'तू हमरा के वोट देई, हम तोहरा के अच्छी सरकार देइब।' यह सही है कि तब भी इन्हें मतदाताओं की याद चुनाव के समय ही आती थी, पर फिर भी उन्हें अपने वोटरों की चिंता रहती थी।
आज राहुल गांधी द्वारा दलितों के घर में रात बिताने की घटनाएं देखकर बिहार के दिग्गज नेता कर्पूरी ठाकुर की याद आना स्वाभाविक है। कर्पूरी ठाकुर दातून मुंह में दबाकर किसी के घर जाते थे और वहीं कुल्ला कर कहते, 'कुछ खिलाओ'। यह कह कर वे रात किसी भी गरीब की झोपड़ी में बिता देते थे। जनता से सीधे संवाद का उनका यह तरीका निराला था। वे मैथिली में संवाद कुछ इस तरह से करते, 'अहां हमरा वोट दियो, हम नीक सरकार देब।' दरअसल, उनका यह निराला अंदाज इसलिए भी संभव हो पाता था, क्योंकि उनमें कोई अभिजात्य नहीं था। यह काम बाद के दलित नेता नहीं कर सके, क्योंकि उन्होंने पांच सितारा सुविधाओं से अपने को जोड़ लिया।
मंडल की राजनीति के बाद तो अनेक नेताओं का जनता से संपर्क बड़ी रैलियों में ही हो पाता था। जाति के आधार पर कई राज्यों में ध्रुवीकरण के चलते नेताओं ने मतदाता को बंधुआ मान लिया। लालू यादव सरीखे नेता जनता से सिर्फ पटना के गांधी मैदान में मुखातिब होते थे: रैली, रैला और महारैला के नाम पर। वे कहते थे, 'लालू को चाहिए आलू। आलू उगाओ, खूब खाओ और देश बचाओ।' बिहार में दलितों के नए नेता रामविलास पासवान वोटरों के संपर्क में तो रहते हैं, पर ज्यादातर अपने चुनाव क्षेत्र में। अन्य जगहों पर उन्हें लगता है कि उनका संदेश जाना भर काफी है। इंदिरा गांधी और बाद में राजीव गांधी की तरह चलते काफिले से हाथ हिलाकर जनता से संवाद कायम करना उन्हें अच्छा लगता है। कहीं-कहीं रुक कर हाथ जोड़कर मुस्करा देना उनकी समझ से काफी है।
वाकई, आज के इस दौर में वोट मांगने का तरीका बदल गया है। सब कुछ फिल्मी स्टाइल में होता है। वोट मांगते वक्त नेता कहते नहीं थकते कि हेन करेंगे, तेन करेंगे, फलां करेंगे, ढका करेंगे, लेकिन अंतत: वे जब गद्दी पर आसीन होते हैं तो फिर पांच साल के लिए अपने वायदों को भूल जाते हैं।
[पोशाक के साथ जुड़ी छवि]
पंडित जवाहर लाल नेहरू या अबुल कलाम आजाद जैसे नेताओं की बात छोड़ दें, तो उत्तर भारत में कांग्रेस, जनसंघ के नेता आम तौर पर धोती-कुरता या कुरता पाजामा में ही विश्वास करते थे। कुछ की छवि तो पोशाक के साथ ही जुड़ गई थी। पंडित नेहरू की कल्पना चुस्त पाजामे और शेरवानी के बिना नहीं की जा सकती थी, तो ऊंची कालर के कुरते और पाजामे के बिना जयप्रकाश नारायण की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कुछ इलाकों में आज भी इस तरह के कुरते को जयप्रकाश कट कहा जाता है। एक पूरी पीढ़ी ऐसी चली गई, जिसके लिए निजी और सार्वजनिक जीवन में पहरावा धौंस जमाने का औजार नहीं था, बल्कि एक शैली थी सात्विक व साधारण जीवन जीने की। इस पीढ़ी में मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडिस, कर्पूरी ठाकुर जैसे समाजवादी भी रहे, तो कमलापति त्रिपाठी, श्रीकृष्ण सिंह (बिहार के पहले मुख्यमंत्री), जैसे कांग्रेसी भी। जहां तक वेश-भूषा का सवाल है तो आमतौर पर दक्षिण के नेताओं ने आज भी लुंगी की पहचान बनाए रखी। दक्षिण के ये नेता वोट मांगते वक्त शालीनता से कहते हैं, 'ऐंग लेके वोट फोडंगल उंगलेके नल्य सरकार कोडुकीरोम' यानी तुम हमें वोट दो, हम तुम्हें अच्छी सरकार देंगे। इसके उलट सिनेमा से राजनीति में आए एमजी रामचंद्रन, एनटी रामाराव या कम्युनिस्टों के लिए नेताओं की परंपरागत ड्रेस का कोई खास अर्थ नहीं था। जहां एक ओर दक्षिण के भाकपा और माकपा के नेताओं को पैंट-शर्ट से परहेज नहीं था, वहीं दूसरी ओर पश्चिम बंगाल के मा‌र्क्सवादियों के साथ धोती-कुरता का जुड़ा होना राजनीति की वजह से कम, उनकी संस्कृति की वजह से अधिक था। ज्योति बसु जब विदेश जाते थे, तो बंद गले के सूट में होते थे, पर जब बंगाल लौटते, तो अपने परंपरागत पहरावे में आ जाते थे। हालांकि अपने राज्य में भी उन्हें पैंट-कोट में देखा जा सकता था। दलित नेता कांशीराम सार्वजनिक मंचों पर हमेशा पैंट-शर्ट में ही रहते थे।
[हिट थी सर पे गाँधी टोपी]
आजादी के बाद लगभग दो दशक तक कांग्रेस के ज्यादातर नेता सार्वजनिक स्थानों पर टोपी के साथ ही दिखाई देते थे, यानी सर पे गांधी टोपी और दिल है हिंदुस्तानी। आश्चर्य की बात है कि आज यह टोपी नारायण दत्त तिवारी सरीखे इक्के-दुक्के नेताओं के ही सिर की शोभा बढ़ाती है। प्रतीकात्मक तौर पर राहुल गांधी जैसे नौजवान इसे पहनकर किसी झोपड़ी का रुख करें और वहां हाथ जोड़ कर विनम्रता से कहें कि 'आपका वोट ही है-आपका अधिकार', तो वह अलग बात है।
[वक्त-वक्त पर उछले नारे]
बांग्लादेश के युद्ध के बाद कांग्रेसियों का नारा था, 'इंडिया इज इंदिरा एंड इंदिरा इज इंडिया।' इसी दौरान इंदिरा गांधी ने 'गरीबी हटाओ' नारा देकर देश की जनता को इमोशनली बांध दिया। मजे की बात तो यह है कि खुद अटल जी ने उन्हें दुर्गा की उपाधि दी। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में अटल जी एक नए नारे के साथ आए, 'चौथी बारी, अटल बिहारी'। इसी प्रकार विश्वनाथ प्रताप सिंह को लेकर उछला नारा था, 'राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है।'
'दुश्मन न करे, दोस्त ने वो काम किया है' इस नारे के साथ ममता बनर्जी बंगाल में टूट पड़ती थीं कम्युनिस्टों पर। बांग्ला भाषा में इसे इस तरह से गाया जाता था, 'शत्रु ना कारुक, मित्रेरा तो ऐई काज करेछे, जेनेसुने आमादेर बदनाम करेछे।'
इन दिनों कुछ युवा लोग यह नारा भी लगा रहे हैं, 'तुम्हारी भी जय जय, हमारी भी जय जय।' दूसरी ओर, कुछ कांग्रेसी कह रहे हैं, 'स्थायी सरकार, विकास का आधार'। कुछ नेताओं ने यह नारा लगाना शुरू कर दिया है, 'बाकी जो बचा था, महंगाई मार गई'।

सांसद की दौड़ में मात्र एक दर्जन युवा

देश का भविष्य युवाओं के हाथ में हैं। इस कारण चुनाव आते ही राजनीतिक दल या चुनाव आयोग, सबकी कोशिश होती है कि युवाओं को सबसे ज्यादा चुनाव के प्रति आकर्षित किया जाए। लेकिन दिल्ली की सात लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए जो प्रत्याशी मैदान में उतरे हैं, उनमें युवाओं की संख्या एक तिहाई से भी कम है। नामांकन प्रक्रिया समाप्त होने के बाद सभी सात सीटों से कुल 217 प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं। इनमें हजारी से लेकर करोड़पति व चाय विक्रेता, ऑटो वाली से नामीगिरामी उद्यमी तक शामिल हैं। लेकिन बता दें कि महज 12 प्रत्याशी ऐसे हैं जिनकी आयु 25 से 30 वर्ष के बीच है। 30 से 40 वर्ष की आयु वर्ग के प्रत्याशियों की संख्या 61 है, जबकि छह प्रत्याशी 70 साल की दहलीज को पार कर चुके हैं।

दो रोटी को तरसते थे, अब मिल रहा भरपेट खाना

'बेटा पहले तो दो जून की रोटी जुटा पाना मुश्किल हो रहा था लेकिन अब भरपेट भोजन मिल रहा है। भगवान करे चुनाव बार-बार आए ताकि उन्हें भूखे नहीं सोना पड़े।' एक चुनावी कार्यालय से बाहर निकले 60 वर्षीय दुलीचंद ने यही कहा। दुलीचंद ही क्या सैकड़ों लोग ऐसे हैं जो प्रत्याशियों को आशीर्वाद देते नहीं थक रहे हैं। इसकी वजह है चुनावी कार्यालय में चल रहे लंगर। चुनाव नजदीक आते ही निम्न श्रेणी के लोगों की मौज आ गई। पहले जहां दो रोटी के लिए मशक्कत करना पड़ता था, अब चुनावी कार्यालयों भरपेट खाना मिल रहा है।
उत्तर पूर्वी सीट में कांग्रेस, भाजपा, बसपा आदि पार्टियों के प्रत्याशियों के चुनावी कार्यालय काफी बड़े हैं। इनमें सैकड़ों लोगों के बैठने की व्यवस्था है। कार्यकर्ताओं को किसी तरह की कमी न हो, इसका प्रत्याशियों ने बखूबी ख्याल रखा है। कार्यालयों में सुबह के नाश्ते से लेकर रात्रि भोज तक की उत्तम व्यवस्था है। यहां दिन भर लंगर चलते हैं। कार्यकर्ताओं के साथ भीड़ बढ़ाने आए लोगों को भी भोजन मिल रहा है। सीमापुरी, नंद नगरी, वेलकम, मुस्तफाबाद, शास्त्री पार्क आदि इलाकों में रहने वाले निम्न श्रेणी के लोग भी इसका फायदा उठा रहे हैं। कुछ घंटे प्रत्याशी की जयकार लगाने के एवज में उन्हें अच्छा खाना मिल रहा है। कभी दाल-चावल तो कभी कढ़ी व पनीर जैसे व्यंजन खाने के लिए लोग चुनावी कार्यालय तक पहुंच रहे हैं। हालांकि इससे प्रत्याशियों को वोट देने वालों में कितना इजाफा होगा ये मतगणना के बाद ही पता चल पाएगा, लेकिन खाना मिलने के कारण प्रत्याशियों के कार्यालयों में हमेशा भीड़ लगी रहती है।

Thursday, April 16, 2009

डालते है वे आचार संहिता का अचार

आजकल जनप्रतिनिधियों के बारह बजे हैं। वे हलकान हैं। चुनाव के मौसम में पचास लफड़े हैं। एक तो टिकट जुगाड़ने में ही फिचकुर निकल जाता है, इसके बाद प्रचार की मारामारी। जनता के बीच जाओ। वोट मागो। सबको भरमाओ। शेखचिल्ली की तरह सपने देखो और दिखाओ।
चुनाव अब पहले की तरह आसान नहीं रहे। जनता नेता को जोकरों की तरह झुलाती है। उसके मनोरंजन के लिये जनप्रतिनिधि को कभी 'गजनी' जैसा बनकर दिखाना पड़ता है, कभी 'सजनी' जैसा। शक्ति प्रदर्शन, गाली-गलौज की तो कोई बात ही नहीं, चलता ही रहता है। इधर एक नई आफत आ गयी है, 'चुनाव आचार संहिता' की। पहले तो जनप्रतिनिधि समझते रहे होंगे कि आचार संहिता अचार जैसी कोई चटखारेदार चीज होती होगी, लेकिन जब लगी तो मिर्ची जैसी लगी। जिसको लगती है पानी मागने लगता है।
जनप्रतिनिधि बेचारा कुछ भी करता है, करने के बाद पता चलता है कि यह काम तो आचार संहिता के खिलाफ था। पैसा बाटो तो आफत, गाली दो तो आफत, धमकाओ तो आफत, दूसरे धर्म की निन्दा करो तो आफत, गुंडे लगाओ तो आफत, बूथ कैप्चर करो तो आफत, राहत कार्य करो तो आफत। मतलब चुनाव जीतना का कोई काम करो तो आफत। जनप्रतिनिधि को खुल के खेलने ही नहीं दिया जाता, कैसे लड़े वो चुनाव!
चुनाव आयोग जनता और नेता के मिलन में दीवार की तरह खड़ा हो जाता है। अब बताओ, कहता है कि चुनाव में पैसा न बाटो! आजकल कहीं उधारी में काम चलता है? लोग कहते भी हैं, उधार प्रेम की कैंची है। जो एडवास पेमेंट देगा, सामान तो उसी का होगा न!
चुनाव आयोग और जनप्रतिनिधि के बीच वैचारिक मतभेद भी एक लफड़ा है। चुनाव आयोग मानता है कि जो जनप्रतिनिधि चुनाव जीते बिना ही गड़बड़ तरीके अपनाता है, वो चुनाव जीतने के बाद और गड़बड़ करेगा। वहीं जनप्रतिनिधि मानता है कि जनता समझती होगी कि जो जनप्रतिनिधि चुनाव के पहले हमारे लिये पैसा खर्चा नहीं कर सकता, वो बाद में क्या करेगा?
अब जनप्रतिनिधि बहुत हलकान हैं। उनका भाषण लिखने वाले ही उनको नहीं मिल रहे। ऐसे में अगर कोई जनप्रतिनिधि चुनाव आयोग की नजरों में फंस जाये तो क्या कर सकता है? एक बार फंसने के बाद उसके करने के लिये कुछ बचता तो है नहीं, जो करना होता है वह तो चुनाव आयोग को करना है, लेकिन फिर भी ऐसी स्थिति में बचने के लिये कुछ लचर बहाने यहा पेश किये जा रहे हैं, जो जनप्रतिनिधि अपने हिसाब से चुनाव आयोग के सामने पेश कर सकता है-
* हम वोटरों को शिक्षित कर रहे थे। उनके वोट की कीमत समझा रहे थे। वो मान ही नहीं रहे थे कि उनके वोट की कोई कीमत भी होती है। हमने बताया कि वोट की कीमत ये होती है। ये तो बयाना है। बाकी बाद में मिलेगा। साहब, हम तो जनता को जागरूक कर रहे थे। उनके अधिकार के महत्व के बारे में बता रहे थे।
* चुनाव सभा में ऐसे ही एक वोटर ने पूछा कि बेलआउट पैकेज क्या होता है? हमने अमेरिका का उदाहरण देकर समझाया कि दीवालिया कम्पनियों को अमेरिकन सरकार जो पैसा देती है उसे बेलआउट पैकेज कहते हैं। वोटर ने जिद की कि उदाहरण देकर समझाओ, तो हमको 'उदाहरण' देकर समझाना पड़ा। अब जनता को जागरूक करना कैसे आचार संहिता के खिलाफ हो गया, हमें तो कुछ समझ में नहीं आता?
* हम भड़काऊ और धमकाऊ भाषण नहीं दे रहे थे। हम तो जनता को समझा रहे थे कि दूसरे धमरें के खिलाफ उल्टी-सीधी बातें नहीं बोलनी चाहिये जिससे वैमनस्य फैले। जनता कहने लगी कि उदाहरण देकर समझाओ कि भड़काऊ भाषण क्या होता है, कैसे देते हैं? जनता की जानकारी के लिये मुझे मन मारकर समझाना पड़ा। अब जनता को वैमनस्य से दूर रखने के लिये उसको समझाना भी अगर आप गुनाह समझते हैं, तो हम क्या कर सकते हैं?
* नयी परियोजना का उद्घाटन करने की हमको कोई जल्दी नहीं थी। जहा दस साल लटकी रही, वहा दस साल और लटक जाती, लेकिन हमें भारतीय संस्कृति ने परेशान कर दिया। हमारे दिमाग में बार-बार कैसेट बजने लगा, 'काल्ह करे सो आज कर।' सो हमने दिल पर पत्थर रखकर पत्थर लगवा दिया। अब संस्कृति का पालन भी गुनाह हो गया क्या?
* हम असल में जनता से कभी मिल पाते नहीं। पाच साल देश की समस्याओं में उलझे रहते हैं। जब मिले तो मन के भाव उमड़ पड़े और मन किया कि सब हिसाब-किताब अभी कर दिया जाए। जैसे फिल्मों में बिछड़े भाई मिलते हैं, तो न जाने क्या-क्या करते बोलते हैं, वैसे ही हमें होश ही नहीं रहा कि हमने क्या किया और क्या हो गया। अब अगर भाई-भाई के बीच में लेन-देन को भी आप आचार संहिता का उल्लंघन मानेंगे तो देश का सारा सद्भाव ही गड़बड़ा जायेगा।
बहाने और भी हैं, लेकिन उनको बताने में दफ्तर की आचार संहिता का उल्लंघन हो सकता है, जहा कोई बहाना नहीं चलता। इसलिये फिलहाल इत्ते से ही संतोष करें!

हम भी हैं राजनीति के चतुर खिलाड़ी

चुनाव का दंगल जारी है। कौन सी पार्टी ज्वाइन की जाए या कब बगावत के तेवर बुलंद किये जाएं, जिससे चुनावी महाभारत को जीता जा सके! हमारी महिला नेत्रियों के दिलोदिमाग में इस वक्त यही विचार सवार है। वे कोई चूक नहीं करना चाहतीं और हर वो पैंतरा आजमाने के लिए कमर कस चुकी हैं, जिन पर कल तक केवल पुरुष नेताओं का एकाधिकार माना जाता था। राजनीति के किसी भी दांव से महिला नेत्रियों को अब कोई परहेज नहीं और उनकी मंजिल बस एक है लोकसभा में पहुंचना।
[सुषमा स्वराज]
पेशे से वकील सुषमा स्वराज ने अपने पॉलिटिकल करियर की शुरु आत 1970 में एक छात्र नेता के रूप में की थी। इस दौरान वह इंदिरा गांधी के खिलाफ चलाए जाने वाले आंदोलनों का नेतृत्व किया करती थीं। वह 1977 में जनता दल में शामिल हुई। हरियाणा विधानसभा चुनाव जीतकर वह देवीलाल की सरकार में मंत्री भी बनीं। हालांकि उन्हें जनता दल रास नहीं आया और दल बदलकर वह बीजेपी में शामिल हो गई। शायद आपको पता नहीं होगा कि सुषमा स्वराज को हरियाणा राज्य के सबसे बेहतर स्पीकर का खिताब भी मिल चुका है? कभी-कभी सुषमा अपनी बातों से मीडिया के लिए मसाला भी तैयार कर देती हैं। 2004 में जब सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की बात सामने आई, तो सुषमा ने एक ऐलान कर डाला। उन्होंने कहा कि यदि कोई विदेशी महिला भारत की प्रधानमंत्री बनती है, तो वह न केवल अपना सिर मुंडा लेंगी, बल्कि सफेद साड़ी भी पहनना शुरू कर देंगी। इसके अलावा, वह भोजन में सिर्फ मूंगफली लेंगी। भला हो कि मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री की गद्दी संभाली और सुषमा स्वराज सिर मुंडाने से बच गई!
[उमा भारती]
छोटी उम्र से ही रामायण की चौपाइयों और महाभारत के श्लोकों को धारा-प्रवाह बोलने वाली उमा रागिनी भारती 1984 में पहली बार बीजेपी के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ीं। अयोध्या रामजन्म भूमि आंदोलन के समय उमा का सिग्नेचर स्लोगन था- राम-लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे। नवंबर 2004 में बड़बोली उमा ने कैमरे के सामने लालकृष्ण आडवाणी को खूब भला-बुरा कहा और पार्टी से निकाल दी गई। वैसे, संघ की सहायता से वे दोबारा 2005 में पार्टी में आ गई। लेकिन शिवराज सिंह चौहान को मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने पर नाराज उमा ने बीजेपी को फिर छोड़ दिया और अपनी नई पार्टी भारतीय जनशक्ति पार्टी बना ली। आजकल उमा आडवाणी को अपना पिता समान बता रही हैं। तो क्या उमा अब दल-बदल करेंगी?
[मेनका गांधी]
पत्रकार मेनका गांधी ने सूर्या पत्रिका में इंदिरा गांधी की सरकार के एक मंत्री के बेटे की सनसनीखेज तस्वीर छापकर खूब सुर्खियां बटोरीं। मेनका ने सन् 1983 में राजनीति में अपनी पहचान बनाने के लिए 'संजय विचार मंच पार्टी' बनाई। हालांकि बाद में उन्होंने अपनी पार्टी को मजबूती देने का विचार त्याग दिया और वह 1988 मे जनता दल में शामिल हो गई। जानवरों के हितों की रक्षा के लिए सदा आगे रहने वाली मेनका ने 1996 और 98 में निर्दलीय चुनाव भी लड़ा। इस समय मेनका को एक अदद पार्टी की तलाश थी, जिसकी वजह से 2004 में उन्होंने बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ा।
[रेणुका चौधरी]
कांग्रेस सरकार में महिला और बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी गार्डेनिंग और लाइट म्यूजिक की शौकीन हैं। उन्होंने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत तेलुगु देशम पार्टी से की। दरअसल 1998 में उनकी राज्यसभा की सदस्यता समय सीमा समाप्त हो गई थी। तेदेपा ने दोबारा उन्हें अपना उम्मीदवार नहीं बनाया। इस बात से रेणुका न केवल खफा हो गई, बल्कि इसका सारा दोष तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के सिर मढ़ दिया। और तो और वे कूद कर कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गई। विवादों में रहना रेणुका को खूब भाता है। पुरुष नेताओं की तरह पब्लिसिटी स्टंट में भी वह पीछे नहीं हैं। रेणुका हाल ही में आंध्रप्रदेश के अपने संसदीय क्षेत्र खम्मम में ट्रैक्टर चलाकर पहुंच गई, तो सब देखते ही रह गए। इस राजनीतिक नाटक को ज्यादा असरदार बनाने के लिए उन्होंने अपने साथ मुख्यमंत्री वाई.एस. राजशेखर रेड्डी को भी ट्रैक्टर पर बिठाया।
[रंजना बाजपेई]
उत्तरप्रदेश में महिला कांग्रेस की अध्यक्षता कर चुकीं रंजना सन् 2002 में समाजवादी पार्टी में शामिल हो गई। कारण, उन्हें उस समय लोहिया के आदर्शो पर चलना था। हालांकि 2009 के लोकसभा चुनाव के समय उन्हें बाबा साहब अंबेडकर के सिद्धांत भाने लगे। इसलिए वह अब बहुजन समाज पार्टी में शामिल हो चुकी हैं। रंजना बाजपेई एक समय इंदिरा गांधी की बेहद करीबी रही है। वह पूर्व केंद्रीय मंत्री राजेंद्र कुमारी बाजपेई की पुत्रवधू हैं।
[ममता बनर्जी]
ममता बनर्जी ने 1970 में कांग्रेस पार्टी के साथ अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत की। 1997 में उन्होंने न केवल कांग्रेस पार्टी को छोड़ दिया, बल्कि एक नई पार्टी ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस भी बना ली। पार्टी छोड़ने की वजह वह पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और वामदलों में साठ-गांठ मानती हैं। ममता बनर्जी ने अपने अब तक के लोकसभा कार्यकाल के दौरान काफी कुछ ऐसा किया, जिससे वह काफी चर्चित हुई। उन्होंने 1996 में लोकसभा कार्यकाल के दौरान समाजवादी पार्टी सांसद अमर सिंह का कॉलर पकड़ लिया था। वहीं वर्ष 1997 में रेलवे बजट के दौरान रेल मंत्री रामविलास पासवान के ऊपर अपना शॉल फेंक दिया था। कारण, उनके अनुसार रामविलास ने पश्चिम बंगाल की पूरी तरह अनदेखी की। इसके अलावा, 1998 में वूमन रिजर्वेशन बिल का विरोध करने पर वे सपा सांसद दरोगा प्रसाद सरोज का कॉलर खींचती हुई संसद से बाहर ले गई। हाल ही में ममता ने कांग्रेस पार्टी के साथ चुनावी तालमेल किया है।
[नजमा हेपतुल्ला]
मौलाना अबुल कलाम आजाद ने भले ही देश के लिए पार्टी बदलना यानी मुस्लिम लीग में शामिल होना सही नहीं माना, लेकिन उनके परिवार की सदस्य नजमा हेपतुल्ला ने अपना रास्ता बनाने के लिए कांग्रेस छोड़कर बीजेपी का दामन थामने में बिल्कुल परहेज नहीं किया। वर्ष 1973 में उन्होंने कांग्रेस पार्टी से अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत की। 1980 में वे न केवल कांगेस पार्टी की सहायता से राज्यसभा सदस्य बनीं, बल्कि 1986 में इस पार्टी की महासचिव भी बन गई। वे 1985-1986 और फिर 1988 से लगातार 2004 तक राज्यसभा की उपसभापति बनी रहीं। फिर अचानक 2004 में नजमा कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गयीं। अपने इस कदम के लिए नजमा ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को जिम्मेदार ठहराया। नजमा के अनुसार, उन्होंने कांग्रेस पार्टी के लिए बहुत-कुछ किया, लेकिन सोनिया गांधी ने इन सभी बातों को नजरअंदाज कर दिया। इसलिए वे बीजेपी में शामिल हो गई।
[जयाप्रदा]
जयाप्रदा का असली नाम ललिता रानी है। उनका जन्म आंध्रप्रदेश के राजामुंदरी में हुआ था। वह डॉक्टर बनना चाहती थीं। एक बार वह स्कूल फंक्शन के दौरान डांस कर रही थीं। उस समय उनकी उम्र मात्र चौदह वर्ष थी। उनके बेहतरीन डांस को देखकर एक तेलुगु फिल्म निर्माता ने उन्हें अपनी फिल्म में एक गाने में तीन मिनट का रोल दे दिया। फिल्मों में अपनी अदाओं से दर्शकों को लुभाने वाली जयाप्रदा ने 1994 में अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत तेलुगु देशम पार्टी से की। कुछ ही वर्षो बाद उनके और पार्टी सुप्रीमो चंद्रबाबू नायडू के रिश्तों में खटास आ गई। इसलिए वह दल-बदलकर समाजवादी पार्टी में शामिल हो गई।