आजकल जनप्रतिनिधियों के बारह बजे हैं। वे हलकान हैं। चुनाव के मौसम में पचास लफड़े हैं। एक तो टिकट जुगाड़ने में ही फिचकुर निकल जाता है, इसके बाद प्रचार की मारामारी। जनता के बीच जाओ। वोट मागो। सबको भरमाओ। शेखचिल्ली की तरह सपने देखो और दिखाओ।
चुनाव अब पहले की तरह आसान नहीं रहे। जनता नेता को जोकरों की तरह झुलाती है। उसके मनोरंजन के लिये जनप्रतिनिधि को कभी 'गजनी' जैसा बनकर दिखाना पड़ता है, कभी 'सजनी' जैसा। शक्ति प्रदर्शन, गाली-गलौज की तो कोई बात ही नहीं, चलता ही रहता है। इधर एक नई आफत आ गयी है, 'चुनाव आचार संहिता' की। पहले तो जनप्रतिनिधि समझते रहे होंगे कि आचार संहिता अचार जैसी कोई चटखारेदार चीज होती होगी, लेकिन जब लगी तो मिर्ची जैसी लगी। जिसको लगती है पानी मागने लगता है।
जनप्रतिनिधि बेचारा कुछ भी करता है, करने के बाद पता चलता है कि यह काम तो आचार संहिता के खिलाफ था। पैसा बाटो तो आफत, गाली दो तो आफत, धमकाओ तो आफत, दूसरे धर्म की निन्दा करो तो आफत, गुंडे लगाओ तो आफत, बूथ कैप्चर करो तो आफत, राहत कार्य करो तो आफत। मतलब चुनाव जीतना का कोई काम करो तो आफत। जनप्रतिनिधि को खुल के खेलने ही नहीं दिया जाता, कैसे लड़े वो चुनाव!
चुनाव आयोग जनता और नेता के मिलन में दीवार की तरह खड़ा हो जाता है। अब बताओ, कहता है कि चुनाव में पैसा न बाटो! आजकल कहीं उधारी में काम चलता है? लोग कहते भी हैं, उधार प्रेम की कैंची है। जो एडवास पेमेंट देगा, सामान तो उसी का होगा न!
चुनाव आयोग और जनप्रतिनिधि के बीच वैचारिक मतभेद भी एक लफड़ा है। चुनाव आयोग मानता है कि जो जनप्रतिनिधि चुनाव जीते बिना ही गड़बड़ तरीके अपनाता है, वो चुनाव जीतने के बाद और गड़बड़ करेगा। वहीं जनप्रतिनिधि मानता है कि जनता समझती होगी कि जो जनप्रतिनिधि चुनाव के पहले हमारे लिये पैसा खर्चा नहीं कर सकता, वो बाद में क्या करेगा?
अब जनप्रतिनिधि बहुत हलकान हैं। उनका भाषण लिखने वाले ही उनको नहीं मिल रहे। ऐसे में अगर कोई जनप्रतिनिधि चुनाव आयोग की नजरों में फंस जाये तो क्या कर सकता है? एक बार फंसने के बाद उसके करने के लिये कुछ बचता तो है नहीं, जो करना होता है वह तो चुनाव आयोग को करना है, लेकिन फिर भी ऐसी स्थिति में बचने के लिये कुछ लचर बहाने यहा पेश किये जा रहे हैं, जो जनप्रतिनिधि अपने हिसाब से चुनाव आयोग के सामने पेश कर सकता है-
* हम वोटरों को शिक्षित कर रहे थे। उनके वोट की कीमत समझा रहे थे। वो मान ही नहीं रहे थे कि उनके वोट की कोई कीमत भी होती है। हमने बताया कि वोट की कीमत ये होती है। ये तो बयाना है। बाकी बाद में मिलेगा। साहब, हम तो जनता को जागरूक कर रहे थे। उनके अधिकार के महत्व के बारे में बता रहे थे।
* चुनाव सभा में ऐसे ही एक वोटर ने पूछा कि बेलआउट पैकेज क्या होता है? हमने अमेरिका का उदाहरण देकर समझाया कि दीवालिया कम्पनियों को अमेरिकन सरकार जो पैसा देती है उसे बेलआउट पैकेज कहते हैं। वोटर ने जिद की कि उदाहरण देकर समझाओ, तो हमको 'उदाहरण' देकर समझाना पड़ा। अब जनता को जागरूक करना कैसे आचार संहिता के खिलाफ हो गया, हमें तो कुछ समझ में नहीं आता?
* हम भड़काऊ और धमकाऊ भाषण नहीं दे रहे थे। हम तो जनता को समझा रहे थे कि दूसरे धमरें के खिलाफ उल्टी-सीधी बातें नहीं बोलनी चाहिये जिससे वैमनस्य फैले। जनता कहने लगी कि उदाहरण देकर समझाओ कि भड़काऊ भाषण क्या होता है, कैसे देते हैं? जनता की जानकारी के लिये मुझे मन मारकर समझाना पड़ा। अब जनता को वैमनस्य से दूर रखने के लिये उसको समझाना भी अगर आप गुनाह समझते हैं, तो हम क्या कर सकते हैं?
* नयी परियोजना का उद्घाटन करने की हमको कोई जल्दी नहीं थी। जहा दस साल लटकी रही, वहा दस साल और लटक जाती, लेकिन हमें भारतीय संस्कृति ने परेशान कर दिया। हमारे दिमाग में बार-बार कैसेट बजने लगा, 'काल्ह करे सो आज कर।' सो हमने दिल पर पत्थर रखकर पत्थर लगवा दिया। अब संस्कृति का पालन भी गुनाह हो गया क्या?
* हम असल में जनता से कभी मिल पाते नहीं। पाच साल देश की समस्याओं में उलझे रहते हैं। जब मिले तो मन के भाव उमड़ पड़े और मन किया कि सब हिसाब-किताब अभी कर दिया जाए। जैसे फिल्मों में बिछड़े भाई मिलते हैं, तो न जाने क्या-क्या करते बोलते हैं, वैसे ही हमें होश ही नहीं रहा कि हमने क्या किया और क्या हो गया। अब अगर भाई-भाई के बीच में लेन-देन को भी आप आचार संहिता का उल्लंघन मानेंगे तो देश का सारा सद्भाव ही गड़बड़ा जायेगा।
बहाने और भी हैं, लेकिन उनको बताने में दफ्तर की आचार संहिता का उल्लंघन हो सकता है, जहा कोई बहाना नहीं चलता। इसलिये फिलहाल इत्ते से ही संतोष करें!
Thursday, April 16, 2009
हम भी हैं राजनीति के चतुर खिलाड़ी
चुनाव का दंगल जारी है। कौन सी पार्टी ज्वाइन की जाए या कब बगावत के तेवर बुलंद किये जाएं, जिससे चुनावी महाभारत को जीता जा सके! हमारी महिला नेत्रियों के दिलोदिमाग में इस वक्त यही विचार सवार है। वे कोई चूक नहीं करना चाहतीं और हर वो पैंतरा आजमाने के लिए कमर कस चुकी हैं, जिन पर कल तक केवल पुरुष नेताओं का एकाधिकार माना जाता था। राजनीति के किसी भी दांव से महिला नेत्रियों को अब कोई परहेज नहीं और उनकी मंजिल बस एक है लोकसभा में पहुंचना।
[सुषमा स्वराज]
पेशे से वकील सुषमा स्वराज ने अपने पॉलिटिकल करियर की शुरु आत 1970 में एक छात्र नेता के रूप में की थी। इस दौरान वह इंदिरा गांधी के खिलाफ चलाए जाने वाले आंदोलनों का नेतृत्व किया करती थीं। वह 1977 में जनता दल में शामिल हुई। हरियाणा विधानसभा चुनाव जीतकर वह देवीलाल की सरकार में मंत्री भी बनीं। हालांकि उन्हें जनता दल रास नहीं आया और दल बदलकर वह बीजेपी में शामिल हो गई। शायद आपको पता नहीं होगा कि सुषमा स्वराज को हरियाणा राज्य के सबसे बेहतर स्पीकर का खिताब भी मिल चुका है? कभी-कभी सुषमा अपनी बातों से मीडिया के लिए मसाला भी तैयार कर देती हैं। 2004 में जब सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की बात सामने आई, तो सुषमा ने एक ऐलान कर डाला। उन्होंने कहा कि यदि कोई विदेशी महिला भारत की प्रधानमंत्री बनती है, तो वह न केवल अपना सिर मुंडा लेंगी, बल्कि सफेद साड़ी भी पहनना शुरू कर देंगी। इसके अलावा, वह भोजन में सिर्फ मूंगफली लेंगी। भला हो कि मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री की गद्दी संभाली और सुषमा स्वराज सिर मुंडाने से बच गई!
[उमा भारती]
छोटी उम्र से ही रामायण की चौपाइयों और महाभारत के श्लोकों को धारा-प्रवाह बोलने वाली उमा रागिनी भारती 1984 में पहली बार बीजेपी के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ीं। अयोध्या रामजन्म भूमि आंदोलन के समय उमा का सिग्नेचर स्लोगन था- राम-लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे। नवंबर 2004 में बड़बोली उमा ने कैमरे के सामने लालकृष्ण आडवाणी को खूब भला-बुरा कहा और पार्टी से निकाल दी गई। वैसे, संघ की सहायता से वे दोबारा 2005 में पार्टी में आ गई। लेकिन शिवराज सिंह चौहान को मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने पर नाराज उमा ने बीजेपी को फिर छोड़ दिया और अपनी नई पार्टी भारतीय जनशक्ति पार्टी बना ली। आजकल उमा आडवाणी को अपना पिता समान बता रही हैं। तो क्या उमा अब दल-बदल करेंगी?
[मेनका गांधी]
पत्रकार मेनका गांधी ने सूर्या पत्रिका में इंदिरा गांधी की सरकार के एक मंत्री के बेटे की सनसनीखेज तस्वीर छापकर खूब सुर्खियां बटोरीं। मेनका ने सन् 1983 में राजनीति में अपनी पहचान बनाने के लिए 'संजय विचार मंच पार्टी' बनाई। हालांकि बाद में उन्होंने अपनी पार्टी को मजबूती देने का विचार त्याग दिया और वह 1988 मे जनता दल में शामिल हो गई। जानवरों के हितों की रक्षा के लिए सदा आगे रहने वाली मेनका ने 1996 और 98 में निर्दलीय चुनाव भी लड़ा। इस समय मेनका को एक अदद पार्टी की तलाश थी, जिसकी वजह से 2004 में उन्होंने बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ा।
[रेणुका चौधरी]
कांग्रेस सरकार में महिला और बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी गार्डेनिंग और लाइट म्यूजिक की शौकीन हैं। उन्होंने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत तेलुगु देशम पार्टी से की। दरअसल 1998 में उनकी राज्यसभा की सदस्यता समय सीमा समाप्त हो गई थी। तेदेपा ने दोबारा उन्हें अपना उम्मीदवार नहीं बनाया। इस बात से रेणुका न केवल खफा हो गई, बल्कि इसका सारा दोष तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के सिर मढ़ दिया। और तो और वे कूद कर कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गई। विवादों में रहना रेणुका को खूब भाता है। पुरुष नेताओं की तरह पब्लिसिटी स्टंट में भी वह पीछे नहीं हैं। रेणुका हाल ही में आंध्रप्रदेश के अपने संसदीय क्षेत्र खम्मम में ट्रैक्टर चलाकर पहुंच गई, तो सब देखते ही रह गए। इस राजनीतिक नाटक को ज्यादा असरदार बनाने के लिए उन्होंने अपने साथ मुख्यमंत्री वाई.एस. राजशेखर रेड्डी को भी ट्रैक्टर पर बिठाया।
[रंजना बाजपेई]
उत्तरप्रदेश में महिला कांग्रेस की अध्यक्षता कर चुकीं रंजना सन् 2002 में समाजवादी पार्टी में शामिल हो गई। कारण, उन्हें उस समय लोहिया के आदर्शो पर चलना था। हालांकि 2009 के लोकसभा चुनाव के समय उन्हें बाबा साहब अंबेडकर के सिद्धांत भाने लगे। इसलिए वह अब बहुजन समाज पार्टी में शामिल हो चुकी हैं। रंजना बाजपेई एक समय इंदिरा गांधी की बेहद करीबी रही है। वह पूर्व केंद्रीय मंत्री राजेंद्र कुमारी बाजपेई की पुत्रवधू हैं।
[ममता बनर्जी]
ममता बनर्जी ने 1970 में कांग्रेस पार्टी के साथ अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत की। 1997 में उन्होंने न केवल कांग्रेस पार्टी को छोड़ दिया, बल्कि एक नई पार्टी ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस भी बना ली। पार्टी छोड़ने की वजह वह पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और वामदलों में साठ-गांठ मानती हैं। ममता बनर्जी ने अपने अब तक के लोकसभा कार्यकाल के दौरान काफी कुछ ऐसा किया, जिससे वह काफी चर्चित हुई। उन्होंने 1996 में लोकसभा कार्यकाल के दौरान समाजवादी पार्टी सांसद अमर सिंह का कॉलर पकड़ लिया था। वहीं वर्ष 1997 में रेलवे बजट के दौरान रेल मंत्री रामविलास पासवान के ऊपर अपना शॉल फेंक दिया था। कारण, उनके अनुसार रामविलास ने पश्चिम बंगाल की पूरी तरह अनदेखी की। इसके अलावा, 1998 में वूमन रिजर्वेशन बिल का विरोध करने पर वे सपा सांसद दरोगा प्रसाद सरोज का कॉलर खींचती हुई संसद से बाहर ले गई। हाल ही में ममता ने कांग्रेस पार्टी के साथ चुनावी तालमेल किया है।
[नजमा हेपतुल्ला]
मौलाना अबुल कलाम आजाद ने भले ही देश के लिए पार्टी बदलना यानी मुस्लिम लीग में शामिल होना सही नहीं माना, लेकिन उनके परिवार की सदस्य नजमा हेपतुल्ला ने अपना रास्ता बनाने के लिए कांग्रेस छोड़कर बीजेपी का दामन थामने में बिल्कुल परहेज नहीं किया। वर्ष 1973 में उन्होंने कांग्रेस पार्टी से अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत की। 1980 में वे न केवल कांगेस पार्टी की सहायता से राज्यसभा सदस्य बनीं, बल्कि 1986 में इस पार्टी की महासचिव भी बन गई। वे 1985-1986 और फिर 1988 से लगातार 2004 तक राज्यसभा की उपसभापति बनी रहीं। फिर अचानक 2004 में नजमा कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गयीं। अपने इस कदम के लिए नजमा ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को जिम्मेदार ठहराया। नजमा के अनुसार, उन्होंने कांग्रेस पार्टी के लिए बहुत-कुछ किया, लेकिन सोनिया गांधी ने इन सभी बातों को नजरअंदाज कर दिया। इसलिए वे बीजेपी में शामिल हो गई।
[जयाप्रदा]
जयाप्रदा का असली नाम ललिता रानी है। उनका जन्म आंध्रप्रदेश के राजामुंदरी में हुआ था। वह डॉक्टर बनना चाहती थीं। एक बार वह स्कूल फंक्शन के दौरान डांस कर रही थीं। उस समय उनकी उम्र मात्र चौदह वर्ष थी। उनके बेहतरीन डांस को देखकर एक तेलुगु फिल्म निर्माता ने उन्हें अपनी फिल्म में एक गाने में तीन मिनट का रोल दे दिया। फिल्मों में अपनी अदाओं से दर्शकों को लुभाने वाली जयाप्रदा ने 1994 में अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत तेलुगु देशम पार्टी से की। कुछ ही वर्षो बाद उनके और पार्टी सुप्रीमो चंद्रबाबू नायडू के रिश्तों में खटास आ गई। इसलिए वह दल-बदलकर समाजवादी पार्टी में शामिल हो गई।
[सुषमा स्वराज]
पेशे से वकील सुषमा स्वराज ने अपने पॉलिटिकल करियर की शुरु आत 1970 में एक छात्र नेता के रूप में की थी। इस दौरान वह इंदिरा गांधी के खिलाफ चलाए जाने वाले आंदोलनों का नेतृत्व किया करती थीं। वह 1977 में जनता दल में शामिल हुई। हरियाणा विधानसभा चुनाव जीतकर वह देवीलाल की सरकार में मंत्री भी बनीं। हालांकि उन्हें जनता दल रास नहीं आया और दल बदलकर वह बीजेपी में शामिल हो गई। शायद आपको पता नहीं होगा कि सुषमा स्वराज को हरियाणा राज्य के सबसे बेहतर स्पीकर का खिताब भी मिल चुका है? कभी-कभी सुषमा अपनी बातों से मीडिया के लिए मसाला भी तैयार कर देती हैं। 2004 में जब सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की बात सामने आई, तो सुषमा ने एक ऐलान कर डाला। उन्होंने कहा कि यदि कोई विदेशी महिला भारत की प्रधानमंत्री बनती है, तो वह न केवल अपना सिर मुंडा लेंगी, बल्कि सफेद साड़ी भी पहनना शुरू कर देंगी। इसके अलावा, वह भोजन में सिर्फ मूंगफली लेंगी। भला हो कि मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री की गद्दी संभाली और सुषमा स्वराज सिर मुंडाने से बच गई!
[उमा भारती]
छोटी उम्र से ही रामायण की चौपाइयों और महाभारत के श्लोकों को धारा-प्रवाह बोलने वाली उमा रागिनी भारती 1984 में पहली बार बीजेपी के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ीं। अयोध्या रामजन्म भूमि आंदोलन के समय उमा का सिग्नेचर स्लोगन था- राम-लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे। नवंबर 2004 में बड़बोली उमा ने कैमरे के सामने लालकृष्ण आडवाणी को खूब भला-बुरा कहा और पार्टी से निकाल दी गई। वैसे, संघ की सहायता से वे दोबारा 2005 में पार्टी में आ गई। लेकिन शिवराज सिंह चौहान को मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने पर नाराज उमा ने बीजेपी को फिर छोड़ दिया और अपनी नई पार्टी भारतीय जनशक्ति पार्टी बना ली। आजकल उमा आडवाणी को अपना पिता समान बता रही हैं। तो क्या उमा अब दल-बदल करेंगी?
[मेनका गांधी]
पत्रकार मेनका गांधी ने सूर्या पत्रिका में इंदिरा गांधी की सरकार के एक मंत्री के बेटे की सनसनीखेज तस्वीर छापकर खूब सुर्खियां बटोरीं। मेनका ने सन् 1983 में राजनीति में अपनी पहचान बनाने के लिए 'संजय विचार मंच पार्टी' बनाई। हालांकि बाद में उन्होंने अपनी पार्टी को मजबूती देने का विचार त्याग दिया और वह 1988 मे जनता दल में शामिल हो गई। जानवरों के हितों की रक्षा के लिए सदा आगे रहने वाली मेनका ने 1996 और 98 में निर्दलीय चुनाव भी लड़ा। इस समय मेनका को एक अदद पार्टी की तलाश थी, जिसकी वजह से 2004 में उन्होंने बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ा।
[रेणुका चौधरी]
कांग्रेस सरकार में महिला और बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी गार्डेनिंग और लाइट म्यूजिक की शौकीन हैं। उन्होंने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत तेलुगु देशम पार्टी से की। दरअसल 1998 में उनकी राज्यसभा की सदस्यता समय सीमा समाप्त हो गई थी। तेदेपा ने दोबारा उन्हें अपना उम्मीदवार नहीं बनाया। इस बात से रेणुका न केवल खफा हो गई, बल्कि इसका सारा दोष तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के सिर मढ़ दिया। और तो और वे कूद कर कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गई। विवादों में रहना रेणुका को खूब भाता है। पुरुष नेताओं की तरह पब्लिसिटी स्टंट में भी वह पीछे नहीं हैं। रेणुका हाल ही में आंध्रप्रदेश के अपने संसदीय क्षेत्र खम्मम में ट्रैक्टर चलाकर पहुंच गई, तो सब देखते ही रह गए। इस राजनीतिक नाटक को ज्यादा असरदार बनाने के लिए उन्होंने अपने साथ मुख्यमंत्री वाई.एस. राजशेखर रेड्डी को भी ट्रैक्टर पर बिठाया।
[रंजना बाजपेई]
उत्तरप्रदेश में महिला कांग्रेस की अध्यक्षता कर चुकीं रंजना सन् 2002 में समाजवादी पार्टी में शामिल हो गई। कारण, उन्हें उस समय लोहिया के आदर्शो पर चलना था। हालांकि 2009 के लोकसभा चुनाव के समय उन्हें बाबा साहब अंबेडकर के सिद्धांत भाने लगे। इसलिए वह अब बहुजन समाज पार्टी में शामिल हो चुकी हैं। रंजना बाजपेई एक समय इंदिरा गांधी की बेहद करीबी रही है। वह पूर्व केंद्रीय मंत्री राजेंद्र कुमारी बाजपेई की पुत्रवधू हैं।
[ममता बनर्जी]
ममता बनर्जी ने 1970 में कांग्रेस पार्टी के साथ अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत की। 1997 में उन्होंने न केवल कांग्रेस पार्टी को छोड़ दिया, बल्कि एक नई पार्टी ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस भी बना ली। पार्टी छोड़ने की वजह वह पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और वामदलों में साठ-गांठ मानती हैं। ममता बनर्जी ने अपने अब तक के लोकसभा कार्यकाल के दौरान काफी कुछ ऐसा किया, जिससे वह काफी चर्चित हुई। उन्होंने 1996 में लोकसभा कार्यकाल के दौरान समाजवादी पार्टी सांसद अमर सिंह का कॉलर पकड़ लिया था। वहीं वर्ष 1997 में रेलवे बजट के दौरान रेल मंत्री रामविलास पासवान के ऊपर अपना शॉल फेंक दिया था। कारण, उनके अनुसार रामविलास ने पश्चिम बंगाल की पूरी तरह अनदेखी की। इसके अलावा, 1998 में वूमन रिजर्वेशन बिल का विरोध करने पर वे सपा सांसद दरोगा प्रसाद सरोज का कॉलर खींचती हुई संसद से बाहर ले गई। हाल ही में ममता ने कांग्रेस पार्टी के साथ चुनावी तालमेल किया है।
[नजमा हेपतुल्ला]
मौलाना अबुल कलाम आजाद ने भले ही देश के लिए पार्टी बदलना यानी मुस्लिम लीग में शामिल होना सही नहीं माना, लेकिन उनके परिवार की सदस्य नजमा हेपतुल्ला ने अपना रास्ता बनाने के लिए कांग्रेस छोड़कर बीजेपी का दामन थामने में बिल्कुल परहेज नहीं किया। वर्ष 1973 में उन्होंने कांग्रेस पार्टी से अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत की। 1980 में वे न केवल कांगेस पार्टी की सहायता से राज्यसभा सदस्य बनीं, बल्कि 1986 में इस पार्टी की महासचिव भी बन गई। वे 1985-1986 और फिर 1988 से लगातार 2004 तक राज्यसभा की उपसभापति बनी रहीं। फिर अचानक 2004 में नजमा कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गयीं। अपने इस कदम के लिए नजमा ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को जिम्मेदार ठहराया। नजमा के अनुसार, उन्होंने कांग्रेस पार्टी के लिए बहुत-कुछ किया, लेकिन सोनिया गांधी ने इन सभी बातों को नजरअंदाज कर दिया। इसलिए वे बीजेपी में शामिल हो गई।
[जयाप्रदा]
जयाप्रदा का असली नाम ललिता रानी है। उनका जन्म आंध्रप्रदेश के राजामुंदरी में हुआ था। वह डॉक्टर बनना चाहती थीं। एक बार वह स्कूल फंक्शन के दौरान डांस कर रही थीं। उस समय उनकी उम्र मात्र चौदह वर्ष थी। उनके बेहतरीन डांस को देखकर एक तेलुगु फिल्म निर्माता ने उन्हें अपनी फिल्म में एक गाने में तीन मिनट का रोल दे दिया। फिल्मों में अपनी अदाओं से दर्शकों को लुभाने वाली जयाप्रदा ने 1994 में अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत तेलुगु देशम पार्टी से की। कुछ ही वर्षो बाद उनके और पार्टी सुप्रीमो चंद्रबाबू नायडू के रिश्तों में खटास आ गई। इसलिए वह दल-बदलकर समाजवादी पार्टी में शामिल हो गई।
Sunday, April 12, 2009
कहीं ग्रह न बिगाड़ दें कुर्सी का खेल
मतदाताओं का समर्थन पाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे प्रत्याशी नामांकन का समय करीब आते ही ग्रहों का समर्थन हासिल करने की कोशिश में भी जुट गए हैं। अपने क्षेत्र के मतदाताओं को लुभाने में एक पल भी नहीं बर्बाद कर रहे ये उम्मीदवार अब पंडितों और ज्योतिषियों के लिए भी समय निकाल रहे हैं। दरअसल, अपनी जीत के लिए ये प्रत्याशी कोई 'रिस्क' लेना नहीं चाहते। इधर, पंडितों की मानें तो बुधवार का दिन नामांकन पत्र दाखिल करने के लिए सर्वश्रेष्ठ दिन है तो सोमवार के दिन का मुहूर्त भी 'ठीक-ठाक' है। हां, पंडितों ने शनिवार और मंगलवार को नामांकन न दाखिल करने की सलाह दी है।
नामांकन प्रक्रिया शनिवार 11 अप्रैल से शुरू हो रही है और शनिवार 18 अप्रैल तक चलेगी। इन आठ दिनों में 12 अप्रैल को रविवार और 14 अप्रैल को अंबेडकर जयंती की छुट्टी होने के कारण नामांकन नहीं भरे जा सकेंगे। यानि पर्चा दाखिल करने के लिए प्रत्याशियों को कुल छह दिन ही मिलेंगे। पंडितों के मुताबिक छह दिन की समयावधि में दो ही दिन श्रेष्ठ हैं। इन में पहला दिन है सोमवार और दूसरा दिन है बुधवार। जागरण से बातचीत में अखिल भारतीय ज्योतिष परिषद के राष्ट्रीय महासचिव आचार्य कृष्णदत्त शास्त्री ने बताया कि सोमवार को स्थिर लग्न है और पर्चा भरने के लिए 11 से 12 बजे तक का समय श्रेष्ठ है। इस लग्न एवं योग में प्रत्याशी को लोकप्रियता मिलती है। इसी तरह बुधवार का दिन भी नामांकन दाखिल करने के लिए काफी अच्छा दिन है। इस दिन 11.30 बजे से 12.12 बजे तक अभिजीत मुहूर्त है। यानी इस मुहूर्त में पर्चा दाखिल करने वालों को विजयश्री भी मिलेगी एवं उन लोगों का भी समर्थन मिल जाएगा, जिनसे मिलने में अभी संदेह लग रहा है।
आचार्य जी बताते हैं कि उनके पास ही दिल्ली एनसीआर के करीब 20 प्रत्याशी नामांकन के लिए शुभ मुहूर्त निकलवाने आ रहे हैं। उन्होंने सभी को उक्त दो दिनों में ही पर्चा भरने की सलाह दी है। इसके अलावा आचार्य जी यह भी बताते हैं कि शनिवार और मंगलवार के दिन नामांकन न ही किए जाएं तो बेहतर है, क्योंकि इन दोनों दिनों में निकृष्ट योग है और जीतना तो दूर की बात, इन में पर्चा भरने वाले प्रत्याशियों का पर्चा भी रद हो जाए तो बड़ी बात नहीं।
नामांकन प्रक्रिया शनिवार 11 अप्रैल से शुरू हो रही है और शनिवार 18 अप्रैल तक चलेगी। इन आठ दिनों में 12 अप्रैल को रविवार और 14 अप्रैल को अंबेडकर जयंती की छुट्टी होने के कारण नामांकन नहीं भरे जा सकेंगे। यानि पर्चा दाखिल करने के लिए प्रत्याशियों को कुल छह दिन ही मिलेंगे। पंडितों के मुताबिक छह दिन की समयावधि में दो ही दिन श्रेष्ठ हैं। इन में पहला दिन है सोमवार और दूसरा दिन है बुधवार। जागरण से बातचीत में अखिल भारतीय ज्योतिष परिषद के राष्ट्रीय महासचिव आचार्य कृष्णदत्त शास्त्री ने बताया कि सोमवार को स्थिर लग्न है और पर्चा भरने के लिए 11 से 12 बजे तक का समय श्रेष्ठ है। इस लग्न एवं योग में प्रत्याशी को लोकप्रियता मिलती है। इसी तरह बुधवार का दिन भी नामांकन दाखिल करने के लिए काफी अच्छा दिन है। इस दिन 11.30 बजे से 12.12 बजे तक अभिजीत मुहूर्त है। यानी इस मुहूर्त में पर्चा दाखिल करने वालों को विजयश्री भी मिलेगी एवं उन लोगों का भी समर्थन मिल जाएगा, जिनसे मिलने में अभी संदेह लग रहा है।
आचार्य जी बताते हैं कि उनके पास ही दिल्ली एनसीआर के करीब 20 प्रत्याशी नामांकन के लिए शुभ मुहूर्त निकलवाने आ रहे हैं। उन्होंने सभी को उक्त दो दिनों में ही पर्चा भरने की सलाह दी है। इसके अलावा आचार्य जी यह भी बताते हैं कि शनिवार और मंगलवार के दिन नामांकन न ही किए जाएं तो बेहतर है, क्योंकि इन दोनों दिनों में निकृष्ट योग है और जीतना तो दूर की बात, इन में पर्चा भरने वाले प्रत्याशियों का पर्चा भी रद हो जाए तो बड़ी बात नहीं।
अब शौकीनों को नहीं मिलेगी शौकीन
देशी शराब पीने वाले लोगों को अब शौकीन ब्रांड की शराब चखने के लिए तरसना पड़ेगा। राजधानी में शराब माफियाओं पर शिकंजा कसने व अवैध शराब की बिक्री पर रोक लगाने के लिए दिल्ली सरकार ने नई योजना तैयार कर ली है। पहले प्रयास में वित्त एवं आबकारी मंत्री डॉ. एके वालिया ने शौकीन ब्रांड की देशी शराब की बिक्री पर रोक लगा दी है। आबकारी विभाग ने देशी शराब बिक्री वाले 87 केंद्रों से बड़ी संख्या में नमूने लिए और प्रयोगशाला में जांच कराई। सभी नमूने तकनीकी आधार पर सही पाए गए, लेकिन शौकीन नामक ब्रांड की देशी शराब में मिलावट को देखते हुए इसे सभी केंद्रों से हटा लिया गया है। अवैध शराब में मिथाइल एल्कोहल की मात्रा स्वीकृत मात्रा से अधिक थी, जिस कारण पिछले दिनों लोगों की जानें गईं।
वित्तमंत्री डा ए के वालिया ने लोगों को विश्वास दिलाया है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय और दिल्ली विधानसभा से नए आबकारी विधेयक को मंजूरी मिलने के बाद अवैध शराब की बिक्री पर नियंत्रण पा लिया जाएगा। विधेयक में दिए गए मसौदे में मौत की सजा और आजीवन कारावास का प्रावधान किया गया है। दिल्ली सरकार शराब की बोतलों पर होलोग्राम लगवाएगी जिससे नकली शराब की बिक्री पर अंकुश लग सकेगा। वहीं, पड़ोसी राज्यों से तस्करी से लाई गई शराब पर भी रोक लगाई जा सकेगी। मुख्य सचिव राकेश मेहता की अध्यक्षता में हुई बैठक में इस नई योजना को लगभग अंतिम रूप दे दिया गया है। इस कार्य योजना में अवैध शराब के स्त्रोत की पहचान और पड़ोसी राज्यों में ऐसी शराब की कीमत दिल्ली से अधिक होने के कारण राजधानी में इसकी बिक्री की वजह पता लगाना, आबकारी विभाग के प्रवर्तन कर्मचारियों की तैनाती ताकि बिक्री केंद्रों की अच्छी तरह चेकिंग की जा सके, विभाग के नियंत्रण कक्ष को 24 घंटे चालू रखा जा सके, समुचित बार कोड सिस्टम लागू करना जिससे काउंटर से बोतलों तक की बिक्री की संख्या और बिक्री केंद्र से अधिकृत बिक्री की संख्या में गड़बड़ी का पता लगाया जा सके। इसके अलावा पुलिस विभाग और आबकारी विभाग के बीच खुफिया सूचना का आदान प्रदान और अनधिकृत कालोनियों व झुग्गी झोपडि़यों में बनी बस्तियों में देशी शराब की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए अधिकृत बिक्री केंद्रों का दायरा बढ़ाना शामिल है। गौरतलब है कि 1 अप्रैल 09 से आबकारी विभाग के आदेश पर लीची नंबर एक ब्रांड की बिक्री पर प्रतिबंध लग चुका है। रघुवीर नगर मामले में डा वालिया ने कहा कि इसकी न्यायिक जांच जिला उपायुक्त करेंगी।
वित्तमंत्री डा ए के वालिया ने लोगों को विश्वास दिलाया है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय और दिल्ली विधानसभा से नए आबकारी विधेयक को मंजूरी मिलने के बाद अवैध शराब की बिक्री पर नियंत्रण पा लिया जाएगा। विधेयक में दिए गए मसौदे में मौत की सजा और आजीवन कारावास का प्रावधान किया गया है। दिल्ली सरकार शराब की बोतलों पर होलोग्राम लगवाएगी जिससे नकली शराब की बिक्री पर अंकुश लग सकेगा। वहीं, पड़ोसी राज्यों से तस्करी से लाई गई शराब पर भी रोक लगाई जा सकेगी। मुख्य सचिव राकेश मेहता की अध्यक्षता में हुई बैठक में इस नई योजना को लगभग अंतिम रूप दे दिया गया है। इस कार्य योजना में अवैध शराब के स्त्रोत की पहचान और पड़ोसी राज्यों में ऐसी शराब की कीमत दिल्ली से अधिक होने के कारण राजधानी में इसकी बिक्री की वजह पता लगाना, आबकारी विभाग के प्रवर्तन कर्मचारियों की तैनाती ताकि बिक्री केंद्रों की अच्छी तरह चेकिंग की जा सके, विभाग के नियंत्रण कक्ष को 24 घंटे चालू रखा जा सके, समुचित बार कोड सिस्टम लागू करना जिससे काउंटर से बोतलों तक की बिक्री की संख्या और बिक्री केंद्र से अधिकृत बिक्री की संख्या में गड़बड़ी का पता लगाया जा सके। इसके अलावा पुलिस विभाग और आबकारी विभाग के बीच खुफिया सूचना का आदान प्रदान और अनधिकृत कालोनियों व झुग्गी झोपडि़यों में बनी बस्तियों में देशी शराब की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए अधिकृत बिक्री केंद्रों का दायरा बढ़ाना शामिल है। गौरतलब है कि 1 अप्रैल 09 से आबकारी विभाग के आदेश पर लीची नंबर एक ब्रांड की बिक्री पर प्रतिबंध लग चुका है। रघुवीर नगर मामले में डा वालिया ने कहा कि इसकी न्यायिक जांच जिला उपायुक्त करेंगी।
नहीं मिल रहे जिंदाबाद करने वाले
पहले चुनावी मौसम में गली-गली में कार्यकर्ताओं की फौज घूमा करती थी। लेकिन इस चुनाव में प्रत्याशियों का हाथ-पैर कहे जाने वाले कार्यकर्ता आजकल ढूंढने से भी नहीं मिल रहे हैं। जिंदाबाद के नारों से आसमान गुंजा देने वाले कार्यकर्ताओं के बिना प्रत्याशी बेहद मायूस नजर आ रहे हैं। यही कारण है कि उम्मीदवार मतदाताओं से कहीं ज्यादा कार्यकर्ताओं को मनाने में जुटे हुए हैं। यही हाल कमोबेश दिल्ली से चुनाव लड़ रहे सभी प्रत्याशियों का है।
चुनाव के दिनों में कहीं जनसभा के लिए भीड़ एकत्रित करनी हो या फिर गली-मोहल्ले में घूम-घूमकर लोगों तक प्रत्याशियों का संदेश पहुंचाना हो, ये सारे काम कार्यकर्ताओं के जिम्मे होते थे। बदले में प्रत्याशी अपने कार्यकर्ताओं के मुंह से निकली हर मांग को पूरा करने की कोशिश करते थे। मगर अब नेता और कार्यकर्ताओं में वह रिश्ता ही नहीं पनप पाता है कि चुनावी बिगुल बजते ही वे अपने प्रत्याशी के समर्थन में मैदान में कूद पडें। अब तो सबकुछ अस्थायी है। चुनाव के बाद नेता कार्यकर्ताओं से पीछा छुड़ा लेते हैं। इसके अलावा जानकारों का कहना है कि चूंकि दिल्ली में अगले वर्ष राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन होना है, इस कारण जो लोग पहले बेरोजगार थे और चुनाव के दिनों में प्रत्याशियों के पीछे-पीछे नारे लगाते फिरते थे, वे अब विकास कार्यो में लगकर कमाई करने में जुटे हुए हैं। इस समय दिल्ली में खेल गांव, स्टेडियम, सड़कें, फ्लाईओवर, फ्लैट आदि खेल आयोजन से संबंधित कार्यो को निर्धारित अवधि में पूरा करने का दबाव है। इसके अलावा मेट्रो के विभिन्न लाइनों के विस्तार का काम दिल्ली व एनसीआर में चल रहा है। इस कारण एक खास तबके के लोग चुनावों में हिस्सा नहीं ले पा रहे हैं। निर्माण कार्य से जुड़ी तमाम कंपनियां ऐसे लोगों को मुंहमांगी वेतन दे रही हैं, ताकि निर्माण कार्य समय सीमा पर पूरा हो सके। वैसे भी चुनाव की सरगर्मी महज एक महीने की होती है, जबकि इन कार्यो में कम से कम डेढ़ से दो साल तक के लिए रोजगार मिला हुआ है।
जानकारों के अनुसार प्रत्याशियों को कार्यकर्ता न मिल पाने का एक दूसरा कारण भी है। राजनीतिक पार्टियों से जुड़े एक खास तबके के लोग चुनाव में अपने मनचाहे प्रत्याशी को टिकट न मिलने के कारण भी नाराज हैं। पार्टी ने जिस प्रत्याशी को टिकट दिया है, वह उन्हें वह थोपा हुआ उम्मीदवार लगता है। इसलिए वे काम के समय इधर-उधर खिसक जाते हैं। चांदनी चौक, नई दिल्ली, पश्चिमी दिल्ली सीट पर चुनाव लड़ रहे भाजपा प्रत्याशियों के साथ ऐसा हो रहा है, वहीं कांग्रेस प्रत्याशी जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार का टिकट कटने से भी यह स्थिति उत्पन्न हो गई है। नतीजतन चुनाव मैदान में उतरे प्रत्याशियों का हाल यह है कि वे फिलहाल कार्यकर्ताओं का दिल जीतने के लिए दिन-रात एक किए हुए हैं।
चुनाव के दिनों में कहीं जनसभा के लिए भीड़ एकत्रित करनी हो या फिर गली-मोहल्ले में घूम-घूमकर लोगों तक प्रत्याशियों का संदेश पहुंचाना हो, ये सारे काम कार्यकर्ताओं के जिम्मे होते थे। बदले में प्रत्याशी अपने कार्यकर्ताओं के मुंह से निकली हर मांग को पूरा करने की कोशिश करते थे। मगर अब नेता और कार्यकर्ताओं में वह रिश्ता ही नहीं पनप पाता है कि चुनावी बिगुल बजते ही वे अपने प्रत्याशी के समर्थन में मैदान में कूद पडें। अब तो सबकुछ अस्थायी है। चुनाव के बाद नेता कार्यकर्ताओं से पीछा छुड़ा लेते हैं। इसके अलावा जानकारों का कहना है कि चूंकि दिल्ली में अगले वर्ष राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन होना है, इस कारण जो लोग पहले बेरोजगार थे और चुनाव के दिनों में प्रत्याशियों के पीछे-पीछे नारे लगाते फिरते थे, वे अब विकास कार्यो में लगकर कमाई करने में जुटे हुए हैं। इस समय दिल्ली में खेल गांव, स्टेडियम, सड़कें, फ्लाईओवर, फ्लैट आदि खेल आयोजन से संबंधित कार्यो को निर्धारित अवधि में पूरा करने का दबाव है। इसके अलावा मेट्रो के विभिन्न लाइनों के विस्तार का काम दिल्ली व एनसीआर में चल रहा है। इस कारण एक खास तबके के लोग चुनावों में हिस्सा नहीं ले पा रहे हैं। निर्माण कार्य से जुड़ी तमाम कंपनियां ऐसे लोगों को मुंहमांगी वेतन दे रही हैं, ताकि निर्माण कार्य समय सीमा पर पूरा हो सके। वैसे भी चुनाव की सरगर्मी महज एक महीने की होती है, जबकि इन कार्यो में कम से कम डेढ़ से दो साल तक के लिए रोजगार मिला हुआ है।
जानकारों के अनुसार प्रत्याशियों को कार्यकर्ता न मिल पाने का एक दूसरा कारण भी है। राजनीतिक पार्टियों से जुड़े एक खास तबके के लोग चुनाव में अपने मनचाहे प्रत्याशी को टिकट न मिलने के कारण भी नाराज हैं। पार्टी ने जिस प्रत्याशी को टिकट दिया है, वह उन्हें वह थोपा हुआ उम्मीदवार लगता है। इसलिए वे काम के समय इधर-उधर खिसक जाते हैं। चांदनी चौक, नई दिल्ली, पश्चिमी दिल्ली सीट पर चुनाव लड़ रहे भाजपा प्रत्याशियों के साथ ऐसा हो रहा है, वहीं कांग्रेस प्रत्याशी जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार का टिकट कटने से भी यह स्थिति उत्पन्न हो गई है। नतीजतन चुनाव मैदान में उतरे प्रत्याशियों का हाल यह है कि वे फिलहाल कार्यकर्ताओं का दिल जीतने के लिए दिन-रात एक किए हुए हैं।
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