Saturday, April 25, 2009

जिंदगी की यही रीत है...


चाट चाट मेरी जान चाट आखिर गिलहरी का भी तो मन करता है कोई उसे प्यार करे...


ये जीवन है...इस जीवन का यही है यही है....यही है रंग रूप

आज तो मई पता करके ही रहूँगा ये है क्या आखिर...इसमे ये कौन है...

थोडे गम है थोडी खुशियाँ...यही है यही है यही है रंग रूप...



मेरे लाल से तो सारा जग झिलमिलाये...


इन सभी फोटो के कैप्शन मेरे भाई अज्येंदर शुक्ला ने लिखे हैं। इसके लिए उनका धन्यवाद्।

बोले तो बिंदास...


कैसे कहे हम... प्यार ने हमको क्या क्या खेल दिखाए...


अपुन बोला तू मेरी लैला...वो बोली फेकता है साला...

इन्तहा हो गई इंतज़ार की...


आज मई उपर आसमा नीचे...आज मई आगे जमाना है पीछे...



तेरे हुस्न की क्या तारीफ़ करू की हम तुमसे मोहब्बत करते है...

जिंदगी मौत न बन जाए सम्भालों यारों...


आए हो मेरी जिंदगी में तुम बहार बन के...


पलट मेरी जान तेरे कुर्बान की तेरा ध्यान किधर है...

आ देखे ज़रा किस्म कितना है दम


इधर दौड़ है उधर दौड़ है...ये जीना यारों दौड़ है...


दौड़ा दौड़ा भागा भागा सा... दौड़ा दौड़ा भागा भागा सा...वक्त ये सख्त है थोड़ा सा...

एहसास... ये एहसास ही तो है!!!


तेरा साथ है कितना प्यारा कम लगता है जीवन सारा


कब अलविदा न कहना...

तेरा साथ है तो मुझे क्या खुशी है अंधेरे में भी मिल गयी रौशनी है


किसी ने अपना बना के मुझको मुस्कुराना सिखा दिया



अबकी शायद हम भी रोयें सावन के महीने में

bhavnao ko samjho!!!


न कोई है न कोई था जिंदगी में तुम्हारे सिवा


तेरा मुझसे है पहले का नाता कोई यूंही नही दिल लगता कोई

जरा नज़रों से कहदो जी निशाना चूक न जाए


ये हमे है यकीन बेवफा वो नही फ़िर वजह क्या हुई???



बच न सका कोई आए जितने



Friday, April 24, 2009

अनूठे नेता, अलबेले अंदाज

एक वोट दे दे, ओ देश के जमाईबाबू
एक वोट दे दे
सुशासन देंगे, कुशासन भगाएंगे
देंगे हम खुशहाल भारत,
ओ बाबू एक वोट दे दे
ओ प्यारी प्यारी मम्मी, एक वोट दे दे
ओ प्यारी न्यारी बहना, एक वोट दे दे
वोट है जन्मसिद्ध अधिकार आपका
इस अधिकार से क्यों वंचित रहना,
ओ बाबू, ओ मम्मी, ओ बहना एक वोट दे दे]
*****
अगर गीतकार आनंद बख्शी आज जीवित होते, तो शायद इसी तर्ज पर कोई गीत लिखते। दरअसल, इस गीत के साथ नेताओं की जो छवि यकायक उभरकर सामने आती है, उसमें उनका गेट-अप, बातचीत का अंदाज और इन सबको मिलाकर बना व्यक्तित्व शामिल होता है। जमाने के साथ बहुत कुछ बदला, न केवल वक्त के साथ नेताजी की वेश-भूषा का कॉन्सेप्ट बदला, बल्कि बदला उनका अंदाज भी।
आज वोट मांगने के तरीके में भी यह बदलाव खूब दिखाई दे रहा है। वोट मांगते वक्त कभी नेता हाथ जोड़ लेते हैं, तो कभी विनम्रता से एक ग्लास पानी की फरमाइश करते हैं। सच तो यह है कि आजादी के ठीक बाद नेताओं का अपनी सादगी व वोट मांगने की शैली पर बहुत जोर था। इसका एक कारण था उनका स्वाधीनता आंदोलन से निकल कर आना। दरअसल स्वदेशी आंदोलन की छाया उन पर बनी हुई थी। यह भी एक वजह थी कि खासकर उत्तर भारत के नेताओं के सिर पर गांधी टोपी उनकी पोशाक का धीरे-धीरे एक हिस्सा बन गई थी।
यह जानना भी दिलचस्प होगा कि नेताओं के वोट मांगने के अंदाज में बदलाव किस तरह आया? शुरू में उनका जनता से सीधा संपर्क था। कुछ शीर्ष नेताओं को छोड़, शेष प्रतिनिधि अपने क्षेत्र में घर-घर जाकर मतदाताओं से संपर्क करते थे। नुक्कड़ सभाओं की भी अहमियत होती थी। भोजपुरी इलाके में जब ये वोट मांगने जाते, तो वे वोटरों से कहते थे, 'तू हमरा के वोट देई, हम तोहरा के अच्छी सरकार देइब।' यह सही है कि तब भी इन्हें मतदाताओं की याद चुनाव के समय ही आती थी, पर फिर भी उन्हें अपने वोटरों की चिंता रहती थी।
आज राहुल गांधी द्वारा दलितों के घर में रात बिताने की घटनाएं देखकर बिहार के दिग्गज नेता कर्पूरी ठाकुर की याद आना स्वाभाविक है। कर्पूरी ठाकुर दातून मुंह में दबाकर किसी के घर जाते थे और वहीं कुल्ला कर कहते, 'कुछ खिलाओ'। यह कह कर वे रात किसी भी गरीब की झोपड़ी में बिता देते थे। जनता से सीधे संवाद का उनका यह तरीका निराला था। वे मैथिली में संवाद कुछ इस तरह से करते, 'अहां हमरा वोट दियो, हम नीक सरकार देब।' दरअसल, उनका यह निराला अंदाज इसलिए भी संभव हो पाता था, क्योंकि उनमें कोई अभिजात्य नहीं था। यह काम बाद के दलित नेता नहीं कर सके, क्योंकि उन्होंने पांच सितारा सुविधाओं से अपने को जोड़ लिया।
मंडल की राजनीति के बाद तो अनेक नेताओं का जनता से संपर्क बड़ी रैलियों में ही हो पाता था। जाति के आधार पर कई राज्यों में ध्रुवीकरण के चलते नेताओं ने मतदाता को बंधुआ मान लिया। लालू यादव सरीखे नेता जनता से सिर्फ पटना के गांधी मैदान में मुखातिब होते थे: रैली, रैला और महारैला के नाम पर। वे कहते थे, 'लालू को चाहिए आलू। आलू उगाओ, खूब खाओ और देश बचाओ।' बिहार में दलितों के नए नेता रामविलास पासवान वोटरों के संपर्क में तो रहते हैं, पर ज्यादातर अपने चुनाव क्षेत्र में। अन्य जगहों पर उन्हें लगता है कि उनका संदेश जाना भर काफी है। इंदिरा गांधी और बाद में राजीव गांधी की तरह चलते काफिले से हाथ हिलाकर जनता से संवाद कायम करना उन्हें अच्छा लगता है। कहीं-कहीं रुक कर हाथ जोड़कर मुस्करा देना उनकी समझ से काफी है।
वाकई, आज के इस दौर में वोट मांगने का तरीका बदल गया है। सब कुछ फिल्मी स्टाइल में होता है। वोट मांगते वक्त नेता कहते नहीं थकते कि हेन करेंगे, तेन करेंगे, फलां करेंगे, ढका करेंगे, लेकिन अंतत: वे जब गद्दी पर आसीन होते हैं तो फिर पांच साल के लिए अपने वायदों को भूल जाते हैं।
[पोशाक के साथ जुड़ी छवि]
पंडित जवाहर लाल नेहरू या अबुल कलाम आजाद जैसे नेताओं की बात छोड़ दें, तो उत्तर भारत में कांग्रेस, जनसंघ के नेता आम तौर पर धोती-कुरता या कुरता पाजामा में ही विश्वास करते थे। कुछ की छवि तो पोशाक के साथ ही जुड़ गई थी। पंडित नेहरू की कल्पना चुस्त पाजामे और शेरवानी के बिना नहीं की जा सकती थी, तो ऊंची कालर के कुरते और पाजामे के बिना जयप्रकाश नारायण की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कुछ इलाकों में आज भी इस तरह के कुरते को जयप्रकाश कट कहा जाता है। एक पूरी पीढ़ी ऐसी चली गई, जिसके लिए निजी और सार्वजनिक जीवन में पहरावा धौंस जमाने का औजार नहीं था, बल्कि एक शैली थी सात्विक व साधारण जीवन जीने की। इस पीढ़ी में मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडिस, कर्पूरी ठाकुर जैसे समाजवादी भी रहे, तो कमलापति त्रिपाठी, श्रीकृष्ण सिंह (बिहार के पहले मुख्यमंत्री), जैसे कांग्रेसी भी। जहां तक वेश-भूषा का सवाल है तो आमतौर पर दक्षिण के नेताओं ने आज भी लुंगी की पहचान बनाए रखी। दक्षिण के ये नेता वोट मांगते वक्त शालीनता से कहते हैं, 'ऐंग लेके वोट फोडंगल उंगलेके नल्य सरकार कोडुकीरोम' यानी तुम हमें वोट दो, हम तुम्हें अच्छी सरकार देंगे। इसके उलट सिनेमा से राजनीति में आए एमजी रामचंद्रन, एनटी रामाराव या कम्युनिस्टों के लिए नेताओं की परंपरागत ड्रेस का कोई खास अर्थ नहीं था। जहां एक ओर दक्षिण के भाकपा और माकपा के नेताओं को पैंट-शर्ट से परहेज नहीं था, वहीं दूसरी ओर पश्चिम बंगाल के मा‌र्क्सवादियों के साथ धोती-कुरता का जुड़ा होना राजनीति की वजह से कम, उनकी संस्कृति की वजह से अधिक था। ज्योति बसु जब विदेश जाते थे, तो बंद गले के सूट में होते थे, पर जब बंगाल लौटते, तो अपने परंपरागत पहरावे में आ जाते थे। हालांकि अपने राज्य में भी उन्हें पैंट-कोट में देखा जा सकता था। दलित नेता कांशीराम सार्वजनिक मंचों पर हमेशा पैंट-शर्ट में ही रहते थे।
[हिट थी सर पे गाँधी टोपी]
आजादी के बाद लगभग दो दशक तक कांग्रेस के ज्यादातर नेता सार्वजनिक स्थानों पर टोपी के साथ ही दिखाई देते थे, यानी सर पे गांधी टोपी और दिल है हिंदुस्तानी। आश्चर्य की बात है कि आज यह टोपी नारायण दत्त तिवारी सरीखे इक्के-दुक्के नेताओं के ही सिर की शोभा बढ़ाती है। प्रतीकात्मक तौर पर राहुल गांधी जैसे नौजवान इसे पहनकर किसी झोपड़ी का रुख करें और वहां हाथ जोड़ कर विनम्रता से कहें कि 'आपका वोट ही है-आपका अधिकार', तो वह अलग बात है।
[वक्त-वक्त पर उछले नारे]
बांग्लादेश के युद्ध के बाद कांग्रेसियों का नारा था, 'इंडिया इज इंदिरा एंड इंदिरा इज इंडिया।' इसी दौरान इंदिरा गांधी ने 'गरीबी हटाओ' नारा देकर देश की जनता को इमोशनली बांध दिया। मजे की बात तो यह है कि खुद अटल जी ने उन्हें दुर्गा की उपाधि दी। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में अटल जी एक नए नारे के साथ आए, 'चौथी बारी, अटल बिहारी'। इसी प्रकार विश्वनाथ प्रताप सिंह को लेकर उछला नारा था, 'राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है।'
'दुश्मन न करे, दोस्त ने वो काम किया है' इस नारे के साथ ममता बनर्जी बंगाल में टूट पड़ती थीं कम्युनिस्टों पर। बांग्ला भाषा में इसे इस तरह से गाया जाता था, 'शत्रु ना कारुक, मित्रेरा तो ऐई काज करेछे, जेनेसुने आमादेर बदनाम करेछे।'
इन दिनों कुछ युवा लोग यह नारा भी लगा रहे हैं, 'तुम्हारी भी जय जय, हमारी भी जय जय।' दूसरी ओर, कुछ कांग्रेसी कह रहे हैं, 'स्थायी सरकार, विकास का आधार'। कुछ नेताओं ने यह नारा लगाना शुरू कर दिया है, 'बाकी जो बचा था, महंगाई मार गई'।

सांसद की दौड़ में मात्र एक दर्जन युवा

देश का भविष्य युवाओं के हाथ में हैं। इस कारण चुनाव आते ही राजनीतिक दल या चुनाव आयोग, सबकी कोशिश होती है कि युवाओं को सबसे ज्यादा चुनाव के प्रति आकर्षित किया जाए। लेकिन दिल्ली की सात लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए जो प्रत्याशी मैदान में उतरे हैं, उनमें युवाओं की संख्या एक तिहाई से भी कम है। नामांकन प्रक्रिया समाप्त होने के बाद सभी सात सीटों से कुल 217 प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं। इनमें हजारी से लेकर करोड़पति व चाय विक्रेता, ऑटो वाली से नामीगिरामी उद्यमी तक शामिल हैं। लेकिन बता दें कि महज 12 प्रत्याशी ऐसे हैं जिनकी आयु 25 से 30 वर्ष के बीच है। 30 से 40 वर्ष की आयु वर्ग के प्रत्याशियों की संख्या 61 है, जबकि छह प्रत्याशी 70 साल की दहलीज को पार कर चुके हैं।

दो रोटी को तरसते थे, अब मिल रहा भरपेट खाना

'बेटा पहले तो दो जून की रोटी जुटा पाना मुश्किल हो रहा था लेकिन अब भरपेट भोजन मिल रहा है। भगवान करे चुनाव बार-बार आए ताकि उन्हें भूखे नहीं सोना पड़े।' एक चुनावी कार्यालय से बाहर निकले 60 वर्षीय दुलीचंद ने यही कहा। दुलीचंद ही क्या सैकड़ों लोग ऐसे हैं जो प्रत्याशियों को आशीर्वाद देते नहीं थक रहे हैं। इसकी वजह है चुनावी कार्यालय में चल रहे लंगर। चुनाव नजदीक आते ही निम्न श्रेणी के लोगों की मौज आ गई। पहले जहां दो रोटी के लिए मशक्कत करना पड़ता था, अब चुनावी कार्यालयों भरपेट खाना मिल रहा है।
उत्तर पूर्वी सीट में कांग्रेस, भाजपा, बसपा आदि पार्टियों के प्रत्याशियों के चुनावी कार्यालय काफी बड़े हैं। इनमें सैकड़ों लोगों के बैठने की व्यवस्था है। कार्यकर्ताओं को किसी तरह की कमी न हो, इसका प्रत्याशियों ने बखूबी ख्याल रखा है। कार्यालयों में सुबह के नाश्ते से लेकर रात्रि भोज तक की उत्तम व्यवस्था है। यहां दिन भर लंगर चलते हैं। कार्यकर्ताओं के साथ भीड़ बढ़ाने आए लोगों को भी भोजन मिल रहा है। सीमापुरी, नंद नगरी, वेलकम, मुस्तफाबाद, शास्त्री पार्क आदि इलाकों में रहने वाले निम्न श्रेणी के लोग भी इसका फायदा उठा रहे हैं। कुछ घंटे प्रत्याशी की जयकार लगाने के एवज में उन्हें अच्छा खाना मिल रहा है। कभी दाल-चावल तो कभी कढ़ी व पनीर जैसे व्यंजन खाने के लिए लोग चुनावी कार्यालय तक पहुंच रहे हैं। हालांकि इससे प्रत्याशियों को वोट देने वालों में कितना इजाफा होगा ये मतगणना के बाद ही पता चल पाएगा, लेकिन खाना मिलने के कारण प्रत्याशियों के कार्यालयों में हमेशा भीड़ लगी रहती है।